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५२६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
तात्पर्य यह है कि अनासक्ति और कर्तव्यदृष्टि से जो कर्म किया. जाता है, वह राग-द्वेष के अभाव में अकर्म है। किन्तु प्रकटरूप में कोई भी कर्म होता हुआ न दिखाई देने पर भी अगर कर्ता के मन में त्याग का अभिमान या आग्रह है, फलेच्छा है, तो वह अकर्म प्रतीत होने वाले को भी 'कर्म' बना देता है। इसी प्रकार कर्तव्य प्राप्त होने पर भय, स्वार्थ या हठाग्रहवश उस कर्तव्य कर्म से विमुख हो जाना, विहित कर्मों का त्याग कर देना आदि कर्मत्याग प्रतीत होने वाले कर्म अकर्म न कहलाकर भय या रागादि के कारण 'कर्म' ही कहलाते हैं।' कर्म में अकर्म का दर्शन करने वाले महाभाग की पहचान
___ अकर्मशील व्यक्ति कर्म करता हुआ भी उस कर्म से लिप्त-बद्ध नहीं होता। गीता में उस महाभाग की पहचान बताते हुए कहा गया है-"जो व्यक्ति विशुद्धात्मा है, योगयुक्त त्रिविध योगों से होने वाली प्रवृत्ति में यतनाशील) है, आत्मविजेता है, जितेन्द्रिय है, तथा सर्वभूतात्मभूत (आत्मवत् सर्वभूतेषु की दृष्टि वाला) है, वह कर्म का कर्ता होते हुए भी उक्त कर्म से लिप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा तत्त्ववेत्ता सतत युक्त (शुद्धोपयोगयुक्त) व्यक्ति देखता, सुनता, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खातापीता, चलता, सोता, श्वास लेता, बोलता, तथा त्याग और ग्रहण करता हुआ एवं आँखें खोलता-मूंदता हुआ भी इस प्रकार मानता है कि मैं (संकल्पपूर्वक) कुछ भी नहीं करता। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में सहजभाव से प्रवृत्त हो रही हैं। यह है कर्म में अकर्म का दर्शन। ऐसा महाभाग पुरुष कर्म का कर्ता होने पर भी अकर्म के समान रहता है, इसलिए अकर्म है। "ऐसा योगी पुरुष (सयोगी केवली) केवल मन-वचन-काया एवं बुद्धि तथा इन्द्रियों से अहंत्व-ममत्व-रहित होकर तथा सब प्रकार की आसक्ति का त्याग करके मात्र आत्मशुद्धि (निर्जरा) के लिए कर्म करते हैं।"२ बौद्ध दर्शन में कर्म, विकर्म और अकर्म का विचार
बौद्धदर्शन में भी कर्म, विकर्म और अकर्म का विचार किया है। वहाँ इन्हें क्रमशः कुशल (शुक्ल) कर्म, अकुशल (कृष्ण) कर्म और अव्यक्त (अकृष्णअशुक्ल) कर्म कहा गया है। जैनदर्शन में जिन्हें पुण्य (शुभ) कर्म और पाप १. (क) यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन! कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
-गीता ३/७ (ख) नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते। ___ मोहात्तस्य परित्यागः तामसः परिकीर्तितः।। (ग) दुःखमित्येवयत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं, नैव त्यागफलं लभेत्॥ -गीता १८/७-८ २. भगवद्गीता अ. ५/श्लो. ७-८-९-१०-११.
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