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५२८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
डालते। बौद्ध-आचार-परम्परा में राग-द्वेष - मोह से युक्त होने पर ही कर्म को बन्धनकारक माना जाता है, राग-द्वेष- मोह - रहित होकर किये गए कर्म बन्धनकर्त्ता नहीं माने जाते । बौद्ध धर्म-परम्परा में राग-द्वेष-मोह से मुक्त अर्हत् (बुद्ध) के द्वारा किये गए अव्यक्त (अकृष्ण- अशुक्ल) कर्म बन्धनकारक नहीं माने जाते।'
तीनों धाराओं में कर्म, विकर्म, अकर्म के अर्थ में प्रायः समानता
इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक (गीता) तीनों धाराओं में कर्म को बन्धक और अबन्धक इन दो भागों में विभाजित किया गया है। अबन्धक कर्म (क्रिया- व्यापार) को जैनदर्शन में ईर्यापथिक कर्म या अकर्म, वैदिक (गीता) दर्शन में अकर्म और बौद्धदर्शन में अव्यक्त या अकृष्ण- अशुक्ल कर्म कहा गया है। तीनों धाराओं की दृष्टि में अकर्म का तात्पर्य कर्म का अभाव, या मन-वचन-काय-कृत क्रिया का अभाव नहीं, अपितु कर्म के सम्पादन में वासना, इच्छा, रागादि प्रेरित कर्तृत्वभाव का अभाव ही अकर्म है, अबन्धक शुद्ध कर्म है। तथा वासनादि भाव से सम्पादित कर्म बन्धकारक हैं। बन्धककर्म के दो विभाग किये गए हैं - एक को कर्म (शुभबन्धक) कहा गया, दूसरे को विकर्म (अशुद्धबन्धक) । यही कर्म, विकर्म, अकर्म का निष्कर्ष है।
१. (क) बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन अ. १, (ख) महाकर्म- विभंग,
(ग) जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश,
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