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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५२१
देखता है, जिसने हिंसा आदि आस्रवों को रोक दिया है, जो शान्त-दान्त (उपशान्त कषाय) है वह भी पापकर्म का बन्ध नहीं करता।"
कर्म और अकर्म का विवेक करने के लिए आचारागंसूत्र में निर्देश किया गया है-"अग्रकर्म और मूलकर्म का सम्यक् परिप्रेक्षण (प्रतिलेखन) करके दोनों अन्तों-राग-द्वेष से बचकर कर्म कर।" यहाँ अग्रकर्म से तात्पर्य है-कर्म (शुभकम) का और मूलकर्म से तात्पर्य है-विकर्म (पापकम) का। इन दोनों से बचकर अबन्धक कर्म (शुद्ध कर्म-अकम) करने की यहाँ प्रेरणा
कर्म के बन्ध और अबन्ध की मीमासा
_बन्ध और अबन्ध की मीमांसा करते हुए पं. सुखलालजी लिखते हैं"यदि कषाय (रागादि भाव) नहीं हैं तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने में समर्थ नहीं है। इससे उल्टे, यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता। इसी से यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है; वह बन्धनकारक नहीं होता।"२ अतः कषाय (रागादि भाव) से मुक्त साधक ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी 'अकर्म' कहलाता है; वह कर्म से लिप्त (बद्ध) नहीं होता। अकर्म में कुशल व्यक्ति की पहचान
: अकर्म में कुशल स्थितप्रज्ञ अथवा वीतराग व्यक्ति की पहचान के लिए आचारांगसूत्र में बताया गया है-"वह अलोभ वृत्ति (वीतरागवृत्ति) से (क्योंकि दसवें गुणस्थान तक संज्वलन का लोभ रहता है; अतः दसवें गुणस्थान से ऊपर उठकर) विरक्त होकर कामभोग प्राप्त होने पर उन्हें मन से भी ग्रहण (स्वीकार) नहीं करता, उनसे निरपेक्ष रहता है। इस प्रकार लोभ का सर्वथा परित्याग करके (यानी बारहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर) वह निष्क्रमण करता है (शुद्ध कर्म में प्रवृत्त होता है) यही अकर्म है। वह इसे भलीभांति जानता-देखता है।"
_ “ऐसा अकर्म-कुशल व्यक्ति (सदेह एवं रागादिरहित होने से) न तो कर्मों से बद्ध होता है और (शरीर रहने तक भवोपग्राही चार अघाती कर्मों के कारण) न सर्वथा मुक्त होता है।" १. (क) कम्मं च पडिलेहाए अग्गं मूलं च विगिच धीरे पलिछन्दिया णं निक्कम्मदंसी। _ (ख) दोहिं अन्तेहिं अदिस्समाणे तं परिण्णाय मेहावी।
-आचारांग सूत्र अ. ३ उ. २/३७१, तथा अ. ३ उ. ३, सू. ३७८ २. कर्मग्रन्थ प्रथम भाग भूमिका (पं. सुखलाल जी) पृ. २६.
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