________________
कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५१९ यावत्कर्म को कर्म मानना न्यायसंगत नहीं, अयुत्तिक भी
अतः नैयायिकों का यह कथन भी जैनकर्मसिद्धान्त-सम्मत नहीं है कि कार्य मात्र के प्रति कर्म साधारण कारण है। नैयायिक दर्शन जीवात्मा को व्यापक मानकर कर्म को जीव-निष्ठ मानता है। उसका कहना है-कर्म जीव का एक गुण है। गुण गुणी (आत्मा) से कभी पृथक् नहीं होता। इस दृष्टि से जीवात्मा के द्वारा जो भी कार्य होता है, उसके साथ कर्म बंध जाता है। इतना ही नहीं, जैसा कि पं. फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री लिखते हैं'जहाँ भी जीवात्मा के उपभोग के योग्य कार्य की सृष्टि होती है, वहाँ उसके कर्म का संयोग होकर ही वैसा होता है। अमेरिका में बनने वाली जिन मोटरों या अन्य वस्तुओं का भारतीयों द्वारा उपभोग होता है, वे (पदाथ) उन उपभोक्ताओं के कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं और इसी से वे कालान्तर में अपने-अपने उपभोक्ताओ के पास पहुँच जाते हैं।..........अर्थात्-उपभोग्य वस्तुओं के विभागीकरण का तुलादण्ड (भी) कर्म है।
निष्कर्ष यह है कि राग-द्वेष और मोह से रहित होकर मात्र कर्तव्य एवं शरीर-निर्वाह के हेतु किया जाने वाला-कर्म-ऐर्यापथिक कर्म, शुद्ध (अबन्धक) कर्म अथवा अकर्म है। इसके विपरीत कर्म का अर्थ है-राग-द्वेष एवं मोह से प्रेरित होकर किया जाने वाला साम्परायिक क्रिया जनित बन्धक कर्म। विकर्म का स्वरूप और पहचान |
यह तो हुआ जैनदृष्टि से कर्म और अकर्म का लेखा-जोखा। अब थोड़ा-सा विकर्म के विषय में विचार करलें। जिस प्रकार कर्म से ही 'अकर्म' प्रादुर्भूत अथवा निर्मित होता है, उसी प्रकार 'विकम' भी कर्म में से प्रादुर्भूत या निर्मित होता है। कर्म के ही दो विभाग हो जाते हैं-एक शुभ और दूसरा अशुभ। तत्त्वार्थ सूत्र में आस्रव और बन्ध के दो भेद बताए गए हैं वहाँ शुभयोग को पुण्य आस्रव (शुभकर्मास्रव) और अशुभयोग को पापासव (अशुभकर्मास्रव) कहा है। साथ ही शुभयोग के साथ कषाय हो तो शुभबन्ध और अशुभयोग के साथ कषाय हो तो अशुभबन्ध भी घोषित किया गया
१. (क) न्यायदर्शन सार
(ख) महांबधो पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचंद जी) से पृ. २४-२५ २. पुण्य, पाप एवं आस्रव तथा बंध की विस्तृत चर्चा अगले प्रकरणों में देखिये
-संपादक ३.. (क) शुभः पुण्यस्य। अशुभः पापस्य।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. ६, सू. ३-४ . (ख) तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) (पं. सुखलाल जी) से पृ. १४९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org