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कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर
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प्रतिसमय बदलती रहने वाली परिणतियों की उत्पत्ति में सहायक होने से गौण निमित्त है । कर्म और नोकर्म में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है और इस निमित्त-नैमित्तिक परम्परा का अन्त होने पर जीव पर निरपेक्ष शुद्धदशा (स्वाभाविक दशा) को प्राप्त हो जाता है। यही मुक्त अवस्था है। इस प्रकार कर्म और नोकर्म के कार्य में अन्तर है। ये दोनों ही संसार- अवस्था में निमित्त हैं। '
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जीव की संसारी अवस्था किन-किन कर्मों के कारण होती है ?
इसलिए कर्म का मुख्य कार्य जीव को संसारी बनाना है। संसार की विभिन्न अवस्थाओं में जीव को रखने का कार्य कर्म कैसे करता है ? इसे विशदरूप से समझने के लिए कर्मों का मुख्य आठ प्रकारों में वर्गीकरण किया गया है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनमें से चार घाती और चार अघाती कर्म हैं। प्रकारान्तर से ये आठों कर्म जीव - विपाकी, पुद्गलविपाकी, भव- विपाकी और क्षेत्रविपाकी इन चार भागों में बंटे हुए हैं। जीवविपाकी कर्म वे हैं, जिनका विपाक जीव में होता है। जिनके विपाकस्वरूप शरीर, वचन और मन की प्राप्ति होती है, वे हैं - पुद्गलविपाकी कर्म । भव के निमित्त से जिनका फल मिलता है, वे भवविपाकी कर्म कहलाते हैं और क्षेत्रविशेष में जो अपना कार्य करते हैं, वे क्षेत्रविपाकी कर्म हैं।
इनमें कर्मों के मुख्य भेद तो दो ही हैं- जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी। भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी कर्म जीवविपाकी कर्म के ही अवान्तर भेद हैं। केवल कार्य-विशेष का बोध कराने की दृष्टि से इनका पृथक् निर्देश किया है। जीव की नर-नारकादि विविध अवस्थाएँ, सुख-दुःख, अज्ञान आदि भाव जीवविपाकी कर्मों के और विविध प्रकार के शरीर, वचन और मन पुद्गलविपाकी कर्मों के कार्य हैं।
चूंकि जीव का संसार जीव और पुद्गल इन दोनों के संयोग का फल है। न तो अकेला जीव संसारी हो सकता है और न अकेला कर्म ही कुछ कर सकता है। इन दो तत्त्वों के मिलन से जीव की संसारी अवस्था होती है। बाह्य सामग्री का संयोग-वियोग कराना कर्म का कार्य नहीं
कर्म के दो भेद (जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी) जीव की विविध अवस्थाओं और परिणामों के होने में (मुख्य) निमित्त होते हैं। इन दोनों
१. महाबंध पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री) से भावांश उद्धृत पृ. २१ २. महाबंध पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री) से साभार उद्धृत पृ. २३ ३. वही, पु. २ से पृ. २३
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