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.५०० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) परिणाम। किन्तु सत्पुरुषार्थ, न्याय-नीतिपूर्वक कार्य, व्यावहारिक कौशल, अहिंसादि धर्माचरण में अनुराग, सौम्य व्यवहार आदि से धनादि प्राप्त होते हैं। किन्तु धनादि प्राप्त होने की घटना के कारण सातावेदनीय कर्म उदय में आ गया; वह विपाकोन्मुख हो गया। इसी प्रकार रोगादि की उत्पत्ति भी अहितकर भोजन, व्यावहारिक अकुशलता, सत्कार्य में पुरुषार्थहीनता, धर्माचरण में आलस्य, अरुचि, समभाव का अनभ्यास आदि से होती है। रोगादि की घटना के कारण असातावेदनीय कर्म उदय में आ गया।..
अभिप्राय यह है कि सातावेदनीय या असातावेदनीय कर्म के उदय में आने पर नोकर्म सहायता कर देता है। यही नोकर्म का कार्य है।'
१. कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश उद्धृत पृ. ९१
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