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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म
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यदि कर्म का हम यह अर्थ लेते हैं तो जब तक देह है, तब तक कोई भी मनुष्य कर्म करना बिलकुल छोड़ नहीं सकता। कथाओं में आता है-उस तरह कोई मुनि चाहे तो वर्षभर तक निर्विकल्प समाधि में निश्चेष्ट होकर पड़ा रहे, परन्तु जिस क्षण वह उठेगा (समाधि खोलेगा) उस क्षण वह कुछ न कुछ कर्म अवश्य करेगा। इसके अलावा हमारी कल्पना ऐसी हो कि हमारा व्यक्तित्व देह से परे जन्म-जन्मान्तर पाने वाला जीवरूप है, तब तो देह के बिना भी वह क्रियावान रहेगा। यदि कर्म से निवृत्त हुए बिमा कर्मक्षय (अकम) न हो सके तो उसका यह अर्थ हुआ कि कर्मक्षय होने की कभी भी सम्भावना नहीं है।"" । कर्म, विकर्म और अकर्म (शुद्ध कम) की अव्यक्त झाँकी __कर्म, विकर्म और अकर्म की अव्यक्तरूप से झाँकी देते हुए वे लिखते हैं-"इसलिए निवृत्ति अथवा निष्कर्मता (अंकर्मता) का अर्थ स्थूल निष्क्रियता समझने में भूल होती है। निष्कर्मता (अकर्मता) सूक्ष्म वस्तु है। वह आध्यात्मिक अर्थात्-बौद्धिक-मानसिक-नैतिक-भावनाविषयक और इससे भी परे बोधात्मक (संवेदनात्मक-ज्ञाताद्रष्टाभावात्मक) है। क, ख, ग, घ नाम के चार व्यक्ति, प, फ, ब, भ, नाम के चार भूखे आदमियों को एक-सा अन्न देते हैं। चारों बाह्य कर्म करते हैं और चारों को समान स्थूल तृप्ति होती है। परन्तु सम्भव है-'क' लोभ से देता हो, 'ख' तिरस्कार से देता हो, 'ग' पुण्येच्छा से देता हो और 'घ' आत्मभाव से स्वभावतः देता हो। उसी तरह 'प' दुःख मानकर लेता हो, 'फ' मेहरबानी मानकर (हीन भावना से) लेता हो, 'ब' उपकारक भावना से लेता हो, 'भ' मित्रभाव से लेता हो। अन्नव्यय और क्षुधा तृप्ति रूपी बाह्य फल सबका समान होने पर भी इन भेदों के कारण कर्म के बन्धन और क्षय की दृष्टि से बहुत फर्क पड़ जाता है। लोभ या अहंकार या तिरस्कार से देने वाले और दुःख मानकर या स्वयं को हीन मानकर लेने वाले दाता और आदाता का अशुभ कर्म (विकम) का बन्ध, 'पुण्येच्छा से देने वाले तथा उपकारक भावना से लेने वाले दाता व आदाता को शुभकर्म (कम) का बन्ध, एवं आत्मभाव से स्वभावतः देने वाले दाता और मित्रभाव से लेने वाले आदाता का कर्मक्षय (अकम) है।
उसी तरह क ख ग घ से प फ ब भ अन्न मांगें और चारों व्यक्ति भोजन न करावें, तो इसमें कर्म से समान परावृत्ति है और चारों की स्थूल भूख पर इसका समान परिणाम होता है, फिर भी भोजन न कराने या न
१. जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में कि. घ. मश्रुवाला के प्रकाशित लेख से पृ. २५०
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