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कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर ४९५ क्रोधादि चार कषाय आदि के परिणाम होना। किन्तु नोकर्म का कार्य इससे भिन्न है। इन परिणामों के निमित्तभूत कर्म के उदय में प्रायः वे वस्त्रादि बाह्य पदार्थरूप नोकर्म सहायक होते हैं। उन्हीं बाह्य पदार्थों की सहायता से वे परिणाम होते हैं।
_इस प्रकार कर्म और नोकर्म के कार्य में अन्तर है। ज्ञानावरणादि कर्मोदय के साथ अज्ञानादि भावों की समव्याप्ति है, नोकर्म के साथ नहीं।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार विवक्षित कर्म का विवक्षित परिणाम (भाव) के साथ अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है, उस प्रकार नोकर्म के साथ इन परिणामों का अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ-जीव का अज्ञानभाव ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है, अन्य प्रकार से नहीं। यह सर्वथा असम्भव हैं कि ज्ञानवरणीय कर्म का उदय रहे, किन्तु अज्ञानभाव न हो। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट होने पर भी अज्ञानभाव बना रहे, यह भी सम्भव नहीं है। जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता है, उसके अज्ञानभाव अवश्यमेव होता है। इसी प्रकार जिसके अज्ञान भाव होता है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म का उदय अवश्य ही होता है। इन दोनों की समव्याप्ति है। किन्तु नोकर्म के साथ जीव के अज्ञान आदि भावों की समव्याप्ति नहीं है।
जैसे वस्त्र आदि पदार्थ अज्ञान के कारण माने जाते हैं, उनके रहने पर भी किसी के अज्ञान होता है, और किसी के नहीं भी होता। इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर बाह्य पदार्थों को नोकर्म की संज्ञा दी है। कर्म वैसी योग्यता का सूचक है, परन्तु बाह्यसामग्री (नोकम) का वैसी योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। कभी वैसी योग्यता के सद्भाव में भी बाह्यसामग्री नहीं मिलती; इसके विपरीत कभी उसके अभाव में भी बाह्य सामग्री का संयोग देखा जाता है। किन्तु कर्म के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसका सम्बन्ध आत्मा से तभी तक रहता है, जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता उपलब्ध होती है। इन दोनों तत्त्वों को कर्म और नोकर्म संज्ञा देने का यही कारण है। कर्म का मुख्य कार्य : संसारी अवस्थाओं में मुख्य निमित्त बनना
कर्मविज्ञानमर्मज्ञ पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री के अनुसार-कर्म का मुख्य कार्य है जीव को संसार-अवस्था में आबद्ध रखना। जीव के परावर्तन १. महाबन्धो पु. २ (प्रस्तावना) (पं. फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. २२ २. वही, पृ. २२ ३. महाबंधो पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. २२-२३
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