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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
सुख-दुःखादि अमूर्त का समवायिकारण : आत्मा, निमित्तकारण : कर्म
____ अग्निभूति गणधर ने पुनः शंका उठाई कि शरीर आदि कार्य मूर्त होने से उसका कारण रूप 'कम' भी मूर्त होना चाहिए। भगवान् ने कहा-मैंने कब कहा कि कर्म अमूर्त है ? मैं तो कर्म को मूर्त ही मानता हूँ, क्योंकि उसका कार्य मूर्त है। जैसे-परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ आँखों से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, फिर भी परमाणु का कार्य घट मूर्त होने से परमाणु भी मूर्त है, वैसे कर्म भी मूर्त ही है। जो कार्य अमूर्त होता है, उसका उपादान कारण भी अमूर्त होता है। जैसे ज्ञान अमूर्त है तो उसका समवायि (उपादान) कारण आत्मा भी अमूर्त है।
फिर शंका उठाई गई कि सुख-दुःख अमूर्त हैं, वे कर्म के कार्य हैं, कर्म उनका कारण है, इसलिए उसे अमूर्त मानना चाहिए। भगवान् ने समाधान किया-यह नियमविरुद्ध है। जो मूर्त है, वह कदापि अमूर्त नहीं होता और जो अमूर्त है, वह कदापि मूर्त नहीं होता। मूर्त कार्य का कारण मूर्त होता है, अमूर्त कार्य का अमूर्त, यह सिद्धान्त है। इस दृष्टि से सुख-दुःख आदि अमूर्त का समवायि कारण अथवा उपादान कारण आत्मा है और वह अमूर्त है। कर्म तो सुख-दुःखादि का अन्नादि के समान निमित्त कारण है। मूर्त का लक्षण और उपादान
. जैनदर्शन में कर्म को पौद्गलिक, भौतिक अथवा मूर्त बतलाया गया है। मूर्त का अर्थ ही है-रूपी या पौद्गलिक। पुद्गल या मूर्त का लक्षण है-जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों। ये ही चार पुद्गल के उपादान हैं। अमूर्त का अर्थ है-जिसमें वर्णादि न हों। आत्मा अमूर्त है। उसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार-प्रकार, शरीरादि नहीं होते। आत्मा का मौलिक स्वरूप एवं उपादान है-ज्ञान, दर्शन, आनन्द (आत्मिक सुख) एवं शक्ति। पुद्गल पुद्गल ही रहते हैं, और चेतना चेतना ही रहती है। दोनों अपना मौलिक स्वभाव और स्वरूप नहीं छोड़ते। षद्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय ही मूर्त है
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय; इन छह प्रकार के द्रव्यों में एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही १. गणधरवाद (दलसुखभाई मालवणिया) पृ. ३९ गा. १६२५-२६-२७ २. (क) रूपिणः पुद्गलाः। पुद्गल रूपी (मूत्त) है।- (विवेचक पं. सुखलालजी)
तत्त्वार्थ सूत्र अ. ५/४ पृ. ११७ (ख) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण वन्तः पुद्गलाः।- तत्त्वार्थ सूत्र अ. ५/२३ (ग) धवला पु. १३ खं. ५ भा. सू. २४
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