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कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर
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भ्रान्त मान्यता
जैन-कर्मविज्ञान से अनभिज्ञ कई लोग भ्रान्तिवश यह कह बैठते हैं कि जीव के विविध प्रकार के रागादि परिणाम होने में केवल कर्म ही निमित्त नहीं है अपितु बाह्य पदार्थों के रूप में 'नोकम' भी उन परिणामों के होने में निमित्त होते हैं। उनका कहना है कि जिस समय भाव की उत्तेजक बाह्य सामग्री उपस्थित होती है, उस समय संसारी जीव के तदनुकूल रागादि परिणाम हो जाते हैं। जैसे-"सुन्दर सुरूप ललना के मिलने या देखने पर राग होता है। जुगुप्सा (घृणा) की सामग्री मिलने पर ग्लानि या घृणा पैदा हो जाती है। विष आदि के भक्षण करने पर मरण हो जाता है। धन-सम्पत्ति को देखकर लोभ के परिणाम हो जाते हैं और लोभवश उस धन को अर्जन करने, हड़पने, छीनने या चुरा लेने का भाव हो जाता है। ठोकर लगने पर दुःख और सुगंन्धित पदार्थ या माला आदि के मिलने पर सुख होता है।" कर्म और नोकर्म के कार्यों में अन्तर
दीर्घदृष्टि से विचार करने पर नोकर्म के कार्य के सम्बन्ध में यह मत युक्तियुक्त नहीं मालूम होता। एक ऐसा निर्ग्रन्थ मुनि है, जिसका चित्त समभाव से ओत-प्रोत है, स्फटिक सम निर्मल है, वीतरागता की दिशा में उसकी साधना एवं निष्ठा चल रही है, यदि उसके समक्ष कोमल गुदगुदी लचीली शय्या उपस्थित की जाएगी, या चित्त को मोहित करने वाली श्रृंगार-सुसज्जित महिला अथवा पंचेन्द्रियविषयों को उत्तेजित करने वाली कोई सामग्री प्रस्तुत की जाएगी और उसे उपभोग करने, अपनाने या ग्रहण करने का कहा जाएगा, फिर भी उसके मन में राग, मोह.या लोभ के परिणाम नहीं होंगे। अथवा उसे कोई वस्तु अनिष्टकर प्रतीत होती है, अथवा अप्रीतिकर मालूम होती है, भले ही दूसरे लोगों को वह प्रीतिकर या इष्ट-प्रिय लगती हो, फिर भी ऐसा साधक उक्त वस्तु को देखकर अप्रसन्नता व्यक्त करेगा। इससे अन्तरंग में योग्यता के अभाव मे बाह्य-सामग्री अपने आप में कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। ये कर्म ही हैं, जो आत्मा में जिस समय रागादि जिस प्रकार के भाव रहते हैं, उस समय उन भावों के संस्कारों से युक्त कर्मरज आत्मा से सम्बद्ध हो जाती है, फिर कालान्तर में वे ही कर्म उदय में आकर आत्मा को सुख-दुःख का वेदन कराते हैं। किन्तु बाह्य-सामग्री (नोकम) की यह स्थिति नहीं है। कर्म और नोकर्म (बाह्य सामग्री) के कार्यों में मौलिक अन्तर है। १. महाबन्धो पुस्तक २ (प्रस्तावना) (पं. फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. २१ २. महाबंधो पु.२ प्रस्तावना (पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री) से भावांश उद्धृत, पृ. २२
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