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४६२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . ___ इस समग्र विवेचन से स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है कि जैनदर्शन में कर्म न तो अमूर्त आत्मगुण-रूप है, और न ही आत्मा के समान अमूर्त है, अपितु वह मूर्तरूप है, पौद्गलिक है, भौतिक है। अपेक्षा से कर्म जड़-चेतन-उभय परिणामरूप भी है
परन्तु जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, सापेक्षवादी है, वह प्रत्येक तत्त्व की समीक्षा अनेकान्तात्मक चिन्तन शैली से करता है। इसलिए जहाँ परमाणुवादी वैशेषिक आदि ने कर्म को एकान्त चेतननिष्ठ मानकर उसे चेतनधर्मा कहा, इसी प्रकार प्रधानवादी सांख्ययोगदर्शन ने उसे अन्तःकरण (मन) निष्ठ मानकर जड़धर्मा बताया; वहाँ आत्मा और परमाणु को परिणामी मानने वाले जैनदर्शन ने अपनी अनेकान्तविशिष्ट चिन्तन शैली के अनुसार कर्म को चेतन और जड़ उभयपरिणाम (भावकर्म और द्रव्यकम) की अपेक्षा एवं विवक्षा से उभयरूप भी माना है। किन्तु उभयपरिणामी होते हुए भी कर्म आत्मगुणरूप नहीं है और न ही आत्मा के समान अमूर्त है।'
१. पंच संग्रह भा. १ प्राक्कथन (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) से पृ. १०
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