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४८६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३).. और तैजसवर्गणा, ये चार प्रकार की कर्म-वर्गणाएँ हैं। शेष १९ वर्गणाएँ नोकर्मवर्गणाएँ हैं।
इस प्रकार द्रव्यवर्गणा दो प्रकार की है-कर्मवर्गणां और नोकर्मवर्गणा। कार्मण वर्गणा कर्म बनने योग्य पुद्गल परमाणु को कहते हैं।' अनादिकालीन कर्ममलों से युक्त जीव जब रागादि कषायों से संतप्त होकर कोई मानसिक, वाचिक या कायिक क्रिया या प्रवृत्ति करता है, तब कार्मणवर्गणा के पुद्गल-परमाणु आत्मा की ओर उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं, जिस प्रकार लोहा चुम्बक की ओर आकृष्ट होता है। ये ही कार्मणवर्गणा के पुद्गल-परमाणु आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करके उसकी स्वतंत्रता को रोक देते हैं, इसलिए ये पुद्गल-परमाणु 'कर्म' कहलाते हैं। षट्खण्डागम की टीका में पूर्वोक्त २३ द्रव्यवर्गणाओं में से चार कार्मणवर्गणा (कार्मण, भाषा, मन और तैजस) को कर्म और शेष १९ वर्गणाओं को 'नोकर्म' कहा है। कार्मणशरीर कर्मरूप और औदारिकादि शरीर नोकर्मरूप
शरीर पाँच प्रकार के हैं-(१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्मण। इनमें से कार्मणशरीर कर्मरूप है, और शेष
औदारिक आदि चार प्रकार के शरीर नोकर्मरूप हैं। ३ कार्मणशरीर को उपचार से कर्म कहा गया
यद्यपि कर्म वास्तव में चेतन-प्रवृत्ति का नाम है, जिसके विषय में पिछले प्रकरणों में विस्तृत रूप से लिखा जा चुका है, तथापि उसका कार्य तथा कारण होने से कार्मणशरीर को भी उपचार से कर्म कहा जाता है। विशेषता इतनी है कि चेतन की रागादि प्रवृत्ति की भांति यह भावात्मक न होकर कर्मवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित होने के कारण द्रव्यात्मक हैद्रव्यकर्म है। १ (क) दव्ववग्गणा दुविहा-कम्मवग्गणा, नोकम्मवग्गणा चेति
तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खन्ध-निफ्फण ॥ (ख) सेस एक्कोणवीसवग्गणाओ णोकम्मवग्गणाओ
-धवला १४/५/६/७१/५२/५-६ २ (क) तत्त्वार्थवार्तिक ६/२/५१ (ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द जैन) से पृ. १८३
"ओरालिय-वेउव्विय-आहारय-तेज-णामकम्मुदये। चउ णोकम्मसरीरा, कम्मेव य होदि कम्मइयं ॥
-गोम्मटसार (जी.) मू. २४४/५०७ ४ कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १२६
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