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४८४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
कर्म की त्रिविध योगात्मक-चतुर्दशविध करणात्मक प्रक्रिया
"द्रव्यमन, द्रव्यवचन तथा द्रव्यकाय, ये तीनों ही परमाणुओं की. रचनाएँ हैं, क्रिया नहीं; इसलिए कर्मों के आस्रवकारक या बन्धकारक योग. के प्रकरण में इनका ग्रहण नहीं होता। ये योग के कारण हैं, किन्तु स्वयं योग नहीं । जिस प्रकार नेत्र रूप ग्रहण करने वाले ज्ञानोपयोग का करण है, परन्तु स्वयं उपयोग नहीं है। चेष्टारूप (प्रवृत्तिमय) होने के कारण भावमन (भावान्तःकरण सहित), भाववचन और भावकाय ही त्रिविध योग है। इन्हीं भावमन-वचन-काया के कहने से कर्मविधान के पूर्वोक्त १४ करणों का ग्रहण हो जाता है। संकल्पपूर्वक प्रवृत्तिरूप कृतककर्म भावना का कार्य है, किन्तु इन तीनों भावयोगों के पीछे चेतनाशक्ति का सीधा सम्बन्ध होने से कर्म की प्रक्रिया पूर्वोक्त १४ भावकरणों के माध्यम से निष्पन्न होती है। यह भी कर्म का भाव-प्रक्रियात्मक रूप है। __ कर्म के पूर्वोक्त सभी प्रक्रियात्मक रूपों को समझ लेने पर कर्मों का निरोध और क्षय करने में साधक सावधान रह सकता है। .
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