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कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४८३
आकार वाला विशुद्धि चक्र द्रव्यचित्त है और उसकी पृष्ठभूमि में स्थित चिन्तन करने की (चेतना-) शक्ति भावचित्त है। नाभिस्थान पर स्थित चतुर्दल कमल के आकार वाले मणिपूर चक्र को हम द्रव्य-अंहकार समझ सकते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में स्थित मैं-मेरा, तू-तेरा रूप द्वन्द्व करने वाली (चेतना-) शक्ति भाव-अहंकार है।"
वचन भी दो प्रकार का है- द्रव्यवचन और भाववचन। कण्ठ, तालु और जिह्वा के स्पन्दन से जिसकी अभिव्यक्ति होती है और कानों के द्वारा जो सुना जाता है, शब्दवर्गणा (भाषा वर्षणा) नामक किन्हीं विशेष जाति के परमाणुओं से निर्मित होने के कारण, वह द्रव्यात्मक वचन द्रव्यवचन है। इन (परमाणुओं) के स्पन्दन से सुना जाने योग्य जो शब्द होता है, वह भी वास्तव में द्रव्यात्मक है। द्रव्यवचन भी दो प्रकार का है-अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प। . भाववचन, मन का वह विकल्प है, जिसकी प्रेरणा से कण्ठ, तालु आदि क्रिया करते हैं। मन के इस विकल्प को बाहर में प्रकट करना ही द्रव्यवचन का उद्देश्य है। जैसा भी वह विकल्प होता है, वैसा ही वचन निकलता है, विकल्प सत्य हो तो सत्य वचन, असत्य हो तो असत्यवचन, मिश्र हो तो मिश्रवचन और विकल्प अनुभय रूप (व्यवहार भाषागत) हो तो अनुभयरूप व्यवहार वचन निकलता है।
'काय के प्रकरण में कर्मेन्द्रियों का अन्तर्भाव होता है। ज्ञानेन्द्रियों की भांति कर्मेन्द्रियाँ भी दो प्रकार की होती हैं-द्रव्यरूप और भावरूप। परमाणुओं से निर्मित होने के कारण हाथ-पैर आदि द्रव्यात्मक हैं और उनकी पृष्ठभूमि में स्थित चेतना की वह योगशक्ति भावात्मक है, जिसके द्वारा ये चेष्टा करते हैं।
कर्मेन्द्रियों की भाँति द्रव्यात्मक ज्ञानेन्द्रियाँ और द्रव्यात्मक अन्तःकरण भी (शरीर के अंग होने से) द्रव्यकाय में गर्भित हैं। विशेषता इतनी है कि उपयोगात्मक होने के कारण उनके भावात्मक पक्ष का काय में ग्रहण होना सम्भव नहीं है। इस प्रकार परमाणुओं से निर्मित कर्मेन्द्रियाँ, परमाणुओं से निर्मित ज्ञानेन्द्रियाँ तथा परमाणुओं से निर्मित अन्तःकरण, ये सब काय के अन्तर्गत हैं। तात्पर्य यह है कि परमाणुओं से निर्मित शरीर तथा उसके सकल अंगोपांग द्रव्यकाय है, और इनकी पृष्ठभूमि में स्थित चेतना की वह योगशक्ति भावकाय है, तथैव शरीर और उसके अंगोपांगों की (संकल्पपूर्वक होने वाली) चेष्टा या हलन-चलन रूप क्रिया भी भावकाय है।' १. वही, (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. १११-११२
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