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कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४७९
इनकी प्रक्रिया का क्रम बतलाते हुए वे लिखते हैं- "स्वामिभक्त सेविकाओं की भाँति ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने प्रतिनियत विषय को ग्रहण करके उसे अपने स्वामी मन के प्रति हस्तान्तरित कर देती हैं। उस विषय के प्राप्त हो जाने पर क्या, क्यों, कैसे आदि के अनेकों विकल्प उठाकर वह (मन) उसका सब ओर से निरीक्षण-परीक्षण करता है। यही उसका मनन कहलाता है। मनन कर चुकने पर वह उसे चित्त की प्रयोगशाला में भेज देता है। वह भूत की स्मृतियों के साथ, तथा भावी की सम्भावनाओं के साथ मिलान करने के लिए चिन्तन की कसौटी पर कसता है। आगे जाने पर यह कदाचित् मेरे अहंकार को हानि तो नहीं पहुँचायेगा अथवा जितना लाभ उसे पहुँचाना चाहिए, उससे कुछ कम तो नहीं करेगा ?....... इत्यादि (विश्लेषणपूर्वक) अपना काम कर चुकने पर चित्त उसे अपने मित्र अहंकार के पास उसकी भोगशाला में भेज देता है। वह मैं-मेरा, तू-तेरा, इष्ट-अनिष्ट इत्यादि रूप द्वन्द्वों की मुद्रा से अंकित करके उसे अन्तिम निर्णय के लिए अपने मंत्री बुद्धि की न्यायशाला में भेज देता है। मन तथा चित्त के द्वारा किये गए परीक्षण का और अहंकार के द्वारा अंकित की गई (द्वन्द्वात्मक) मुद्राओं का पुनरपि सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण करके वह (बुद्धि)"यह विषय ग्राह्य है, अथवा त्याज्य है; कर्तव्य है, अथवा अकर्तव्य ऐसा निर्णय सुना देती है।"
"बुद्धि के इस निर्णय को सुनकर अहंकार यदि उसे अनुकूल पाता है तो हर्षित हो जाता है, और प्रतिकूल पाता है तो उदास..... । हर्षित अवस्था में उत्साह के साथ और उदास अवस्था में कुछ अनमने भाव से वह बुद्धि की उस आज्ञा को चित्त के प्रति प्रदान करता है। जिसे प्राप्त करके वह भी अहंकार की भांति हर्षित तथा उदास होकर आगा-पीछा देखने लगता है और उसे समुचित कार्यवाही के लिये मन के पास भेज देता है।"
"तदनुसार मन कर्मेन्द्रियों (तथा बहिःकरणरूप ज्ञानेन्द्रियों ) को आज्ञा करता है कि तुरन्त इस विषय को बंदी बनाकर मेरे दरबार में उपस्थित करो, अथवा इसे यहाँ से हटाकर सागर में डुबा आओ, अथवा इसमें कुछ इस प्रकार का परिवर्तन करो, इत्यादि। अपने स्वामी की आज्ञा पाकर हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियाँ (तथा नेत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ) निर्विलम्ब अपने-अपने काम में जुट जाती हैं, और उस समय तक अथक परिश्रम करती रहती हैं, जब तक कि अपने स्वामी मन को सन्तुष्ट न कर लें"। "ये अधिकाधिक उत्साह के साथ उस (मन) की सेवा में इस प्रकार जुटी रहती हैं कि उन्हें यह सोचने का भी अवकाश नहीं मिलता कि हम क्या कर रही हैं और क्यों
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