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कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४६५
जैविक-रासायनिक प्रक्रिया को समझना अत्यन्त आवश्यक है। अगर हम उस रासायनिक प्रक्रिया के प्रति जागरूक नहीं हैं, असावधान या गाफिल हैं, तो आने वाले उन पौलिक कर्मपरमाणुजन्य कर्मों को हम रोक नहीं सकेंगे। अगर वे आने वाले कर्म रोके नहीं जाएँगे तो वे अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहेंगे। वे द्रव्यकर्म भावकों के निमित्त बनेंगे और फिर द्वेषादि परिणामों का चक्र चलना बन्द नहीं हो सकेगा। भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों की सन्धि तोड़ने के लिए प्रक्रियात्मक रूप जानना आवश्यक
वे द्रव्यकर्म ही हैं, जो भावकों को जिलाते हैं और भावकर्म फिर द्रव्यकर्मों को जिलाते हैं। दोनों परस्पर एक-दूसरे को जीवनी-शक्ति प्रदान करते हैं। दोनों में परस्पर ऐसी सन्धि है कि ये दोनों एक-दूसरे को उकसाने
और पल्लवित होने में सहायता करते हैं। दोनों की इस अव्यक्त और विचित्र सन्धि को तोड़ने के लिए इन दोनों की आत्मा को साथ संलग्न होने की रासायनिक प्रक्रिया को जानना जरूरी है। यदि साधक चाहता है कि भावकर्म और द्रव्यकर्म इन दोनों की सन्धि तोड़ दे, या दोनों में ऐसा विभेद उत्पन्न कर दे कि ये दोनों अलग-अलग हो जाएँ, मिल न सकें; अनादिकाल से चली आ रही दोनों की.गुटबाजी समाप्त कर दे तो इसके लिए दोनों कर्मों के आने के स्रोत तथा माध्यमों के रोकना होगा। उन स्रोतों एवं माध्यमों का मार्गान्तरीकरण करना होगा। परन्तु यह सब कर्मों के आगमन और आत्मा में प्रविष्ट होने के प्रक्रियात्मक रूप को जाने बिना नहीं हो सकेगा। अमूर्त के साथ मूर्तकर्म का संयोग सम्बन्ध कैसे?
सर्वप्रथम तो यह प्रश्न होता है कि मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा में प्रवेश कैसे हो गया ? कैसे इन दोनों विजातीय पदार्थों में मिलन या सम्बन्ध स्थापित हो गया ? जैनकर्मविज्ञानशास्त्री यह समाधान देते हैं कि मूर्त और अमूर्त में कोई विरोध नहीं है कि दोनों का संयोग न हो सके। मूर्त का अमूर्त के साथ और अमूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। आकाश अमूर्त है, उसके साथ संसार के प्रत्येक पदार्थ का संयोग होता है। न्यायशास्त्र में घटाकाश, मठाकाश आदि के रूप में असीम एवं अमूर्त, अखण्ड आकाश के साथ घट, मठ आदि पदार्थों का योग बताया गया है। इस प्रकार एक अमूर्त आकाश अनेक रूपों में विभाजित हो गया। १. (क) महाबंधो भा. १ की प्रस्तावना (पं. सुमेरु चन्द्र दिवाकर) पृ.७४ _ (ख) कर्मवाद से भावांश उद्धृत पृ. २७ २. वही, भावांश पृ. २७ . .
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