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४६० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
'जयधवला' टीका में कहा गया है-कर्म मूर्त है, यह कैसे जाना? इसका समाधान यह है कि यदि कर्म को मूर्त नहीं माना जाए तो मूर्त औषधि के सम्बन्ध से परिणामान्तर उत्पन्न नहीं हो सकता। अर्थात्रुग्णावस्था में औषधि ग्रहण करने से रोग के कारणभूत कर्मों की उपशान्ति देखी जाती है। अन्यथा, वह नहीं हो सकती। औषधि के द्वारा परिणामान्तर की प्राप्ति असिद्ध नहीं है; क्योंकि परिणामान्तर न होता तो ज्वर, कुष्ट तथा क्षय आदि रोग नष्ट नहीं हो सकते थे। अतः कर्म में परिणामान्तर-प्राप्ति सिद्ध होने से वह मूर्त सिद्ध होता है।' ___आचार्य गुणधर ने "कसायपाहुड" में कहा है-कृत्रिम होते हुए भी कर्म मूर्त है; क्योंकि मूर्त दवा के सेवन से परिणामान्तर होता है, अर्थात्रुग्णावस्था स्वस्थ अवस्था में परिवर्तित हो जाती है। यदि कर्म मूर्त न होता तो मूर्त औषधि से कर्मजन्य शरीर में परिवर्तन न होता।
'अनगार धर्मामत' में कर्म को मूर्त सिद्ध करते हुए कहा गया है-कर्म मूर्त है, क्योंकि उसका फल मूर्तिक द्रव्य के सम्बन्ध से अनुभवगोचर होता है। जैसे-चूहे के काटने से उत्पन्न हुआ विष। आशय यह है कि जैसे-चूहे के काटने से उत्पन्न शोथ आदि विकार इन्द्रियगोचर होने से वह मूर्त है, उससे उसका मूल कारण विष भी मूर्त होना चाहिए, इसी प्रकार यह जीव मणि-पुष्प-वनितादि के निमित्त से सुख तथा सर्प-सिंहादि के निमित्त से दुःखरूप कर्म के विपाक का अनुभव करता है। अतः इस सुख-दुःख के कारणभूत कर्म को भी मूर्त मानना उचित है। कर्म के मूर्त कार्यों को देखकर मूर्तत्त्व-सिद्धि ____ सौ बात की एक बात है-कर्म के कार्यों को देखकर भी उसका मूर्तिक होना स्वतः सिद्ध होता है। तत्त्वार्थसार में यही कहा है-जिस प्रकार मिट्टी के परमाणुओं से निर्मित घट कार्य को देखकर उसके परमाणुओं
१. (क) तं पि मुत्तं चेव। तं कथं णव्वदे? मुत्तोसहसम्बन्धेण परिणामा
न्तर-गमण-जहाणुववत्तीदो। ण च परिणामांतरगमणमसिद्ध, तस्स तेण विणा जर-कुट्ठ-क्खयादीणं विणासाणववत्तीए परिणामन्तरगमण-सिद्धिदो।।
-जयधवला टीका १/५७ २. कसायपाहुड (आचार्य गुणधर) १/१/१ पृ. ५७ ३. (क) यदाखु-विषवन्मूर्त-सम्बन्धेनानुभूयते।
___ यथास्वं कर्मणः पुंसा फलं तत्कर्म मूर्तिमत्॥ -अनगार धर्मामृत २/३० (ख) मूर्त कर्म मूर्त-सम्बन्धेनानुभूयमान-मूर्तफलत्वादाखुविषवत्।
-पंचास्तिकाय टीका (अमृतचन्द्र सूरि)
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