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कर्म : मूर्तरूप या अमूर्त आत्म-गुणरूप ? ३५७ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-विशिष्ट होने से मूर्तिक है। अतः कर्म मूर्त सिद्ध होने पर उनकी पौद्गलिकता (भौतिकता) तो स्वयं सिद्ध हो जाती है। कर्म अमूर्त आत्मा का गुण नहीं है
नैयायिक और वैशेषिक दर्शन कर्म को अदृष्ट मानकर उसे आत्मा का गुण मानते हैं। किन्तु जैनदर्शन कर्म को आत्मा का गुण न मानकर कर्म और आत्मा (जीव) दोनों को भिन्न-भिन्न द्रव्य मानता है। अगर कर्म को आत्मा का गुण माना जाता, तो आत्मा की तरह कर्म भी अमूर्त होता। ऐसी स्थिति में (कम) अमूर्तिक (आत्मा) का बन्ध नहीं हो पाता। यह परखा हुआ सिद्धान्त है कि जिस पदार्थ का जो गुण होता है, वह उसका विघातक नहीं होता। फिर तो अमूर्तिक कर्म, अमूर्तिक आत्मा का अनुग्रह और निग्रह, उपकार और अपकार करने में समर्थ नहीं होता। अतः कर्म आत्मा का गुण होता तो वह उसके लिए आवरण, पारतन्त्र्य और दुःख का हेतु नहीं हो पाता; क्योंकि कर्म आत्मा के गुणों का घातक, बाधक, आवरण है तथा उसके पारतन्त्र्य और दुःख का हेतु है। कर्म आत्मा का गुण होने पर अपने आधारभूत गुणी (आत्मा) को बन्धन में नहीं डाल पाता। संसारी आत्मा को भी (कम) बन्धन-बद्ध न होने के कारण सदा-सर्वदा के लिए स्वतन्त्र, शुद्धबुद्ध-मुक्त मानना पड़ेगा। किन्तु ऐसा मानना युक्तिसंगत एवं सिद्धान्तसम्मत नहीं होगा।
: दूसरी बात यह है कि कर्म को आत्मा का गुण मानने पर कोई भी आत्मा कर्म-बद्ध न होने से संसारी नहीं रह पाएगा, संसार का सर्वथा अभाव हो जाएगा, सभी आत्मा मुक्त हो जाएँगे। और फिर मुक्ति के लिए किये जाने वाला तप, संयम, व्रत-नियम आदि सद्धर्माचरण-पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाएगा। अतः कर्म को आत्मा का गुण मानना युक्तियुक्त नहीं है।'
___ यदि कर्म को आत्मा का गुण मानकर भी उसे आत्मा के बन्ध का कारण माना जाएगा तो आत्मा कभी मुक्त न हो सकेगी, क्योंकि गुण के नष्ट हो जाने से गुणी भी नष्ट हो जाएगा। कर्म को आत्मा का गुण मानने से एक दोष यह भी आएगा कि गुण गुणी से कदापि पृथक नहीं हो पाएगा। फलतः जैसे संसारी आत्माओं के साथ कर्म रहता है, उसी प्रकार मुक्त १. (क) कर्म : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) से पृ. २४
(ख) न कर्माऽत्मगुणो अमूर्तस्तस्य बन्धाप्रसिद्धितः। ___ अनुग्रहोपघातौ हि नामूर्तेः कर्तुमर्हति ॥ -तत्त्वार्थसार ५/१४
(ग) तत्त्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि (आ. पूज्यपाद) ८/२ पृ. ३७७ २. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ८/२/१० पृ. ५६६
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