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४५० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
लगे।'
कर्मशक्ति को परास्त किया जा सकता है।
कर्मचक्र की अनवरत गति से यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक आत्मा के लिए यह क्रम शाश्वत ही रहेगा। तप, त्याग, संयम और समत्व की साधना के द्वारा उत्कृष्ट पात्रता पाकर आत्मा कर्मचक्र की इस गति को समाप्त कर सकती है। आत्मा कर्मचक्र में ग्रस्त तभी होती है, जब वह राग, द्वेष, मोह, क्रोधादि कषायों के आवेग के कारण कर्मबन्धनों से बद्ध हो जाती है। व्यक्ति चाहे तो स्वयं को इन विकारों से बचाकर बन्धनमुक्तं रख सकता है।
भगवान् महावीर का यह सन्देश उन कर्म-मुक्ति- गवेषकों के लिए परम प्रेरक हो सकता है - " आत्महितैषी व्यक्ति पाप-कर्मवर्द्धक क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों का त्याग कर दे।"
क्रोधादि कषाय ही कर्मों के मूल स्रोत हैं। जब ये नष्ट कर दिये जाते हैं तो इनकी नींव पर स्थित कर्मरूपी प्रासाद स्वतः ही धराशायी हो जाता है। आत्मा में स्वतः ऐसी शक्ति है कि वह चाहे तो कर्मचक्र को स्थगित कर सकती है, स्वयं बन्धन को काट सकती है। कर्म चाहे जितने ही शक्तिशाली हों, आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है।
जैसे अग्नि के बढ़ते हुए कणों को रोका जा सकता है, वैसे ही आत्मा में प्रविष्ट एवं वृद्धि पाते हुए विजातीय कर्मपरमाणुओं को भी रोका जा सकता है।
आत्मा की शक्ति कर्म की शक्ति से अधिक क्यों ?
स्थूल दृष्टि से देखें तो पानी मुलायम और पत्थर कठोर मालूम होता है, किन्तु पहाड़ पर से धारा प्रवाह बहने वाला मुलायम पानी बड़ी-बड़ी कठोर चट्टानों में भी छेद डालकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। लोहा पानी से कठोर प्रतीत होता है, किन्तु उसी लोहे को पानी के सम्पर्क में रखने पर वह उसे जंग लगाकर काट डालता है। इसी प्रकार स्थूल दृष्टि से कठोर प्रतीत होने वाले कर्मों को आत्मा के तप, त्याग, संयम आदि शस्त्रों से तोड़ा जा सकता है। कर्म स्थूलदृष्टि से बलवान् प्रतीत होता है, किन्तु
१. ( क ) जिनवाणी कर्म सिद्धान्त में प्रकाशित लेख से पृ. १४९
(ख) कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेशमुनि) से सारांश पृ. १९ (ग) धर्म और दर्शन ( उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) पृ. ४७ से
२. (क) जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित लेख से पृ. १४९
(ख) कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं ।
वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणो ॥
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- दशवैकालिक ८/३
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