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क्या कर्म महाशक्तिरूप है ?
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बलवान् है वस्तुतः आत्मा ही। आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है। अपनी शक्तियों का भान होते ही आत्मा, कर्मशक्ति को पछाड़ सकता है
वास्तव में आत्मा को जब तक अपने स्वरूप और शक्तियों का ज्ञानभान नहीं होता, तब तक वह कर्मों को अपने से अधिक शक्तिशाली समझकर उनसे दबा रहता है। ऐसी स्थिति में जब आत्मा अपनी शक्ति के 'स्रोत को विस्मृत हो जाता है, तब कर्म उस पर हावी हो जाते हैं, परन्तु जब आत्मा को अपनी शक्तियों का भान हो जाता है, वह भेदविज्ञान का महान् अस्त्र हाथ में ले लेता है तब आत्मा ऊपर और कर्म नीचे होता है।
वीर हनुमान् को जब तक अपने स्व-रूप का, स्व-शक्ति का परिज्ञान नहीं हुआ था, तब तक वह नागपाश में बँधा रहा, रावण की ठोकरें खाता रहा और अपमान के कटु चूंट पीता रहा; किन्तु ज्यों ही उसे स्वरूप का भान हुआ, त्यों ही वह नागपाश तोड़कर बन्धनमुक्त हो गया। ___ एक बार सन्ध्या के झुटपुटे में एक सिंहशिशु अपनी माँ से बिछुड़कर एक झाड़ी में छिप गया था। एक गड़रिया भी भेड़ों के झुण्ड से पृथक् हुए बच्चे को ढूँढ रहा था। झाड़ी में दुबके हुए सिंहशिशु को देखकर उसने उस पर दो चार लाठियाँ जमा दीं। और उसे भेड़ों के टोले में ले आया। अब वह सिंहशिशु अपने स्वरूप और शक्ति को भूल कर स्वयं को भेड़ समझने लगा। एक दिन नदी में पानी पीते समय उसने अपनी चेहरा देखा तो भेड़ों से पृथक् मालूम हुआ। संयोगवश नदी के उस पार एक बब्बरशेर आ गया। उसकी गर्जना और आकृति देखी तो उसे अपने स्वरूप का भान हुआ। उस सिंहशिशु ने ज्यों ही अपनी पूरी शक्ति लगा कर गर्जना की; त्यों ही सब भेड़ें भाग खड़ी हुई। इसी प्रकार आत्मा भी अनादिकाल से कषाय और राग-द्वेष-मोह से ग्रस्त होकर स्व-स्वरूप को भूला हुआ है, जब इसे अपने असली स्वरूप का भान हो जाता है और अपना पराक्रम कषायादि विकारों को जीतने और कर्मों को तोड़ने में करता है, तब कर्मशक्ति आत्मशक्ति के सामने नगण्य हो जाती है। उपाध्याय श्री देवेन्द्र जी इसी तथ्य का समर्थन करते हैं
"अजकुलगत केसरी लहै रे, निजपद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ते भवी लहै रे, आतम शक्ति संभाल।।"
१. धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. ४७ २. धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. ४७ ।। ३. अध्यात्म दर्शन (आनन्दघन चौबीसी पद्मग्न भाष्य) ऋषभजिन स्तवन से सारांश। ४. देवचन्द्र चौबीसी (अजित जिन स्तवन) से
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