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४४० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
तीर्थकर, षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती, तीन खण्ड के अधिपति वासुदेव, महान् ऐश्वर्य के स्वामी बलदेव आदि महान् श्लाघ्य पुरुषों को भी ऐसे भीषण दुःख दिये हैं, जिन्हें पढ़-सुनकर तथा जिनका स्मरण करके रौंगटे खड़े हो जाते हैं।
जैन इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि आदि-तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव को बारह महीने तक अपने कल्प-नियमानुसार अन्न का एक कंण भी प्राप्त नहीं हुआ। पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप उन्हें. इतने लम्बे काल तक निराहार ही रहना पड़ा। श्रीकृष्णजी के लघुभ्राता महारानी देवकी के लाल गजसुकुमाल मुनि को ९९ लाख वर्षों पूर्व के कृत-कर्म उदय आने पर सोमिल विप्र द्वारा उनके मस्तक पर खैर के धधकते अंगारे रखे गए। अयोध्यानरेश सत्यवादी हरिश्चन्द्र को अपनी रानी तारा के सहित काशी के बाजार में पशुओं की भांति बिकना पड़ा। पूर्वकृतकर्मोदयवश धर्मवीर सेठ सुदर्शन को शूली पर लटक जाना पड़ा। कर्मों के प्रकोप के कारण मुनिराज स्कन्दककुमार को अपने पांच-सौ शिष्यों के साथ सरसों के दानों की भांति कोल्हू में पिलना पड़ा।' कर्म-महाशक्ति के प्रकोप के विषय में एक आचार्य कहते हैं
"नीचर्गोत्रावतारश्चरम-जिनपतेर्मल्लिनाथेऽबलात्वमन्ध्य श्री ब्रह्मदत्ते भरत-नृप-जयः सर्वनाशश्च कृष्णे। निर्वाण नारदेऽपि प्रशम-परिणतिः स्याच्चिलातीसूते वा, त्रैलोक्याश्चर्यहेतुर्जयति विजयिनी कर्म-निर्माण-शक्तिः।"२
इसका भावार्थ यह है कि संसार का सर्वश्रेष्ठ पद तीर्थकर होता है। वे उच्चक्षत्रियकुल में जन्म ग्रहण करते हैं, फिर भी इस युग के अन्तिम तीर्थकर श्री महावीर स्वामी दशवें प्राणत स्वर्ग से च्यवकर ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में अवतरित होते हैं। तीर्थकर होते हुए भी क्षत्रियेतर कुल में अवतीर्ण होना कर्म-परवशता का परिचायक है। इसी प्रकार तीर्थकर का उत्तम पुरुष के रूप में अवतरण होता है, लेकिन उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ ने अबला (महिला) के रूप में अवतार पाया, यह भी कर्म की शक्तिमत्ता का सूचक है। चक्रवर्तियों का शरीर उत्तम लक्षणों से युक्त सर्वांग सुन्दर एवं पूर्ण स्वस्थ होता है, किन्तु ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को
१. (क) ज्ञान का अमृत पृ. ११५ (प. ज्ञानमुनि जी) से
(ख) अन्तकृद्दशा सूत्र (गजसुकुमार प्रकरण) से २. आत्मतत्त्व विचार (प्रवक्ता-विजयलक्ष्मण सूरी जी) में उद्धृत श्लोक पृ. २८१
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