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कर्मशास्त्रों द्वारा कर्मवाद का अध्यात्ममूलक सर्वक्षेत्रीय विकास २८९
विद्वान्-मूर्ख आदि आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ क्यों, कैसे और कब तक ? इत्यादि विकट प्रश्न मुँह बाए खड़े रहेंगे। अपने साथ लगी हुई इन उपाधियों से विकृत बनी हुई, शुद्ध स्वरूप से दूर आत्मा कैसे और कब अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होगी ? निष्कर्ष यह है कि आत्मा की वर्तमान दृश्यमान अवस्थाओं का स्वरूप भलीभांति, जाने बिना, उस अवस्था से ऊपर उठने की या उससे पार परिपूर्ण शुद्ध, बुद्ध-मुक्त आत्मा होने की योग्यता एवं तदनुकूल तत्त्वदृष्टि कैसे प्राप्त हो सकती है ? तथा दृश्यमान विभिन्न दशाएँ आत्मा का स्वभाव क्यों नहीं है ? आत्मा स्वभाव को छोड़कर परभावों - में कैसे और कब चला जाता है ? इसीलिए अध्यात्मशास्त्र आत्मा के इन सब दृश्यमान वर्तमान अवस्थाओं की उपेक्षा करके केवल शुद्ध आत्मा की ही निश्चय-दृष्टि की ही बात करेगा तो वह अपने अध्येता या पाठक को केवल हवाई कल्पनाओं के पंख लगाकर आध्यात्मिक आकाश में उड़ने की प्रेरणा करेगा, किन्तु व्यावहारिक धरातल पर उसकी आत्मा आस्रव और बन्ध के भार से पूरी नहीं तो, आत्मगुण घातक कर्मों से कुछ अंशों में जब मुक्त होती जाएगी, तभी वह शुद्ध आत्मा हलकी होकर अध्यात्म-गगन में उड़ान भर सकेगी। अर्थात्-अध्यात्मशास्त्र के लिए यह आवश्यक है कि वह पहले आत्मा के दृश्यमान विरूप की संगति एवं उपपत्ति बिठाकर फिर आगे बढ़े। यही कार्य कर्मशास्त्र करता है। वह दृश्यमान समस्त सांसारिक अवस्थाओं को कर्मजन्य बताकर उक्त अवस्थाओं से आत्मा के स्वरूप का पार्थक्य बतलाकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कर्मों से सर्वथा मुक्त होना आवश्यक बताता है। इस दृष्टि से देखें तो कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र का ही एक प्रमुख अंग है। कर्मशास्त्र की उपेक्षा करके अध्यात्म-शास्त्र की व्याख्या सर्वांगपूर्ण नहीं हो सकती। अध्यात्मशास्त्र के उद्देश्य की पूर्ति ही कर्मशास्त्र करता है।
यदि अध्यात्मशास्त्र का उद्देश्य केवल आत्मा के शुद्धस्वरूप का वर्णन करना और आत्मा से परमात्मा बनना ही माना जाए, तब भी कर्मशास्त्र को उसका पहला पड़ाव मानना पड़ेगा। क्योंकि जब तक आत्मा शरीर से सम्बद्ध है, तब तक विविध प्रकार की अनुभव में आने वाली वैभाविक परिणतियों अथवा विकृत अवस्थाओं, राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि से सम्पृक्त विविध संवेदनों के साथ उसका क्या सम्बन्ध है ? वह सम्बन्ध त्रिकालस्थायी है या परिवर्तनशील है ? तब तक आत्मा के शुद्धस्वरूप की बात करना दिवास्वप्नवत् होगा। जब यह भलीभांति प्रतीत हो जाता है कि सांसारिक आत्मा का यह वर्तमान रूप औपाधिक है, कर्मजन्य है, मायिक है
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