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पंच-कारणवादों की समीक्षा और समन्वय
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है कि "न्यायवादियों को यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार गर्भाधानादि कार्यों के लिए काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ इन पांचों का समुदाय होना आवश्यक है, वैसे ही जगत् के समस्त कार्यों के लिए काल आदि पांचों समुदायरूप से कारण हैं। इन पांचों कारणों में से किसी एक को ही कारण मानना कथमपि अभीष्ट एवं अपेक्षित नहीं है। इसलिए समस्त कार्यों की निष्पत्ति के लिए पंच-कारण-सामग्री ही अभीष्ट मानी गई है।" संसार का प्रत्येक कार्य : पाच कारणों के मेल से
सृष्टि में दो प्रकार के पदार्थ हैं-जड़ और चेतन। इन दोनों प्रकार के पदार्थों में वैरूप्य, वैविध्य एवं वैचित्र्य दृष्टिगोचर होता है। जहाँ तक जड़ पदार्थ सम्बन्धी विचित्रताओं एवं विविधताओं तथा आंशिक रूप से सचेतन पदार्थों की विविधताओं का सवाल है, जैन दार्शनिकों का यह मन्तव्य है कि उनमें काल आदि पंचवादों का समन्वय कारण है। संसार में जो भी कार्य होता है, वह इन पांचों के मेल से-समवाय से ही होता है। ऐसा कदापि नहीं होता कि कोई एक ही वाद अपने बल पर कार्य सिद्ध कर दे। यह तो संभव है कि किसी कार्य में कोई एक प्रधान कारण हो, दूसरे गौण। परन्तु एक ही स्वतंत्र रूप से कार्य सिद्ध कर दे, ऐसा सम्भव नहीं है। कालादि तीनो वाद : कब आशिक सत्य, कब सम्पूर्ण सत्य ? ___'कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधीवाद ?-' में हमने कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवाद के स्वरूप का विवेचन किया है। प्रत्येक वाद अपने-अपने दृष्टिबिन्दु से आंशिकरूप से तो सत्य है, किन्तु वह पूर्णसत्य (प्रमाणसत्य) नहीं है। सम्पूर्ण सत्य तो अनेकान्तवाद में है, दोनों नेत्र खुले रखकर नय और प्रमाण दोनों दृष्टियों से विचार करने में है। एकान्तकालवाद की समीक्षा
अगर कालवादी यह कहने लंग जाए कि संसार के समस्त कार्यों का एकमात्र काल ही आधार है, तो उसका यह कथन निरपेक्ष होने से सत्य नहीं होगा। कालरूपी समर्थ कारण के सदैव रहते हुए भी अमुक कार्य कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता। अतः यह नियत व्यवस्था अकेले काल से सम्भव नहीं है। फिर काल अचेतन है, उसमें स्वयं नियामकता नहीं हो सकती। स्वतः परिवर्तित होने वाले सांसारिक पदार्थों में काल कदाचित् उदासीन निमित्त बन जाए, किन्तु वह अकेला प्रेरक निमित्त या एकमात्र असाधारण निमित्त नहीं हो सकता। यह नियत कार्य-कारणभाव के सर्वथा विपरीत है। काल समानरूप से हेतु होने पर भी
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