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३७२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
उपादान दोनों ही कारण अनिवार्य हैं। कार्य सदैव कारण-सापेक्ष होता है। उपादान और निमित्त दोनों ही प्रकार के कारण प्रत्येक कार्य में होते हैं।
विशिष्ट-संयोग को प्राप्त होने वाले दो या अनेक पदार्थों में से वह पदार्थ जिसमें कि कार्य प्रकट होता है, उपादान कहलाता है, जबकि शेष एक या अनेक पदार्थ, जिनकी सहायता की अपेक्षा के बिना वह कार्य होना असम्भव होता है, वह निमित्त है और वह कार्य उसका नैमित्तिक है। दूसरे शब्दों में निमित्त नाम 'कारण' का है और नैमित्तिक उस कार्य का है, जो किसी विवक्षित पदार्थ में उस निमित्त की सहायता से उत्पन्न हुआ है। 'उपादान' नाम उस विवक्षित पदार्थ का है, जो स्वयं उस कार्य या पर्याय के रूप में परिणत हुआ है। जैसे-घट की उत्पत्ति में कुम्हार, दण्ड, चक्र, चीवर आदि निमित्त कारण हैं, घट नैमित्तिक हैं और मिट्टी उपादान है। जैन कर्मविज्ञान के अनुसार आत्मा (जीव) के प्रत्येक कर्म-संकल्प के लिए उपादान रूप में भावकर्म (मनोविकार) और निमित्तरूप में 'द्रव्यकर्म' (कर्म-परमाणु) का होना अनिवार्य है। भावकर्म आत्मा के वैभाविक परिणाम (मिथ्यात्व-कषायादि रूप आत्मा के भाव) हैं इसलिए स्वयं आत्मा ही उसका उपादान है, क्योंकि घट के आन्तरिक (उपादान) कारण मिट्टी की तरह भावकर्म का आन्तरिक (उपादान) कारण आत्मा है। द्रव्यकर्म सूक्ष्म कार्मण जाति के परमाणुओं का विकार है। जैसे कुम्भकार घड़े का निमित्त कारण है, वैसे ही आत्मा उसका निमित्त कारण है। भावकर्म और द्रव्यकर्म की परस्पर निमित्त नैमित्तिक श्रृंखला
जीव के योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति अर्थात्-प्रदेश परिस्पन्द) का निमित्त पाकर कर्मवर्गणाएँ उसके प्रति स्वतः आकर्षित हो जाती हैं और इधर-उधर से गतिमान होती हुई उस जीव के प्रदेशों में प्रवेश करके द्रव्यकर्म के रूप में परिणत हो जाती हैं। फिर जीव के उपयोग का अर्थात्-राग-द्वेष-मोहात्मक 'भावकर्म' का निमित्त पाकर के 'द्रव्यकर्म' अनुभाग तथा स्थिति (बन्ध) को धारण करके कुछ काल पर्यन्त उसी अव्यक्त अवस्था में जीव के साथ बँधे रहते हैं। यह स्थिति पूर्ण होने पर द्रव्यकर्म परिपाकदशा को प्राप्त होकर उदय में आता है, यानी फलोन्मुख होता है। जिसका निमित्त पाकर जीव में योग और उपयोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म की यह अटूट निमित्त-नैमित्तिक श्रृंखला प्रवाहरूप से अनादिकाल से चली आ रही है। १. कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. ४८-४९ २. (क) वही, पृ. ४९
(ख) जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. १३ ३. कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) पृ. १५९
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