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३८२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
निवृत्त हो जाता है। जैन दर्शन में माना गया है कि कार्मण शरीर और राग-द्वेषादिभाव अनादि काल से साथ-साथ हैं, एक के बिना दूसरा नहीं रहता, इसी प्रकार सांख्य भी मानता है कि लिंग शरीर भाव के बिना और भाव लिंग शरीर के बिना नहीं होते। जैनमतानुसार कार्मण शरीर प्रतिघात रहित तथा उपभोगशक्तिरहित है, वैसे ही सांख्यमत में लिंग शरीर अव्याहत गति तथा उपभोगरहित है। यद्यपि सांख्यमत में रागादिभाव, लिंग शरीर अन्य भौतिक पदार्थ प्रकृति के विकार हैं; तथापि इन विकारों के जातिगत भेद को सांख्य स्वीकार करते हैं। वे तीन प्रकार के सर्ग मानते हैं-प्रत्ययसर्ग, तान्मात्रिक सर्ग और भौतिक सर्ग। राग-द्वेषादि भाव प्रत्यय-सर्ग में, तथा लिंग शरीर तान्मात्रिक सर्ग में समाविष्ट हैं। यद्यपि जैनदर्शन में रागादिभाव एवं कार्मण शरीर को पुद्गलकृत माना गया है, तथा भावों का उपादान कारण आत्मा को और निमित्त पुद्गल को, तथा कार्मण शरीर का उपादान 'पुद्गल को और निमित्त आत्मा को माना है, परन्तु सांख्यमत में प्रकृति अचेतन होते हुए भी पुरुष-संसर्ग के कारण चेतनवत् व्यवहार करती है। जैनों ने स्वीकार किया है कि पुद्गल द्रव्य अचेतन होते हुए भी आत्म-संसर्ग से कर्मरूप में परिणत होता है, तब चेतन-सदृश व्यवहार करता है। जिस प्रकार जैनदर्शन संसारी आत्मा और शरीर आदि अजीव पदार्थों का ऐक्य क्षीर-नीरवत् मानता है, तथैव सांख्यदर्शन भी पुरुष और शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों का ऐक्य क्षीरनीरवत् मानता है।
निष्कर्ष यह है कि जैनसम्मत भावकर्म की तुलना सांख्य-सम्मत भावों से, 'त्रिविध योग' की तुलना वृत्ति से और द्रव्यकर्म या कार्मण शरीर की तुलना लिंग शरीर से की जा सकती है। जैनदर्शन एवं सांख्यदर्शन दोनों ही कर्मफल अथवा कर्म-निष्पत्ति में ईश्वर जैसे किसी कारण को नहीं मानते।
१. (क) आत्ममीमांसा से पृ. १०४-१०५
(ख) सांख्यकारिका ४१ (ग) सांख्यतत्त्वकौमुदी ४० (घ) सांख्यकारिका ४६ (ङ) सांख्यतत्त्वकौमुदी ५२
(च) माठरवृत्ति पृ. ९, २९ २. (क) आत्ममीमांसा पृ. १०५
(ख) सांख्यकारिका २८, २९, ३०, ४0
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