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कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३८३
बौद्धदर्शन में भावकर्म और द्रव्यकर्म प्रकारान्तर से मान्य
जैनदर्शन के समान बौद्धदर्शन में भी लोभ (राग), द्वेष और मोह को कर्म (भावकर्म) की उत्पत्ति का कारण माना है। किन्तु अमूर्त चैतसिक (नामरूप) तत्त्व के आधार पर जड़-चेतनमय अथवा बौद्ध परिभाषा में नाम-रूपमय जगत् की व्याख्या करना सम्भव नहीं है। क्योंकि बौद्धदर्शन मानता है कि अमूर्त चैतसिक तत्त्व ही अमूर्त चेतना को प्रभावित करते हैं। इसीलिए 'विसुद्धिमग्ग' में तथा सौत्रान्तिक मत में कर्म को जब अरूपी कहा गया तो 'अभिधर्म कोष में कर्म को अविज्ञप्ति' और अविज्ञप्ति को 'रूप' मानकर समाधान किया है कि चैतसिक तत्त्वों (लोभ, द्वेष- मोह या वासना) और भौतिक तत्त्वों (मन वचन काया की प्रवृत्ति-रूपात्मक) के मध्य कारण-कार्यभाव सम्बन्ध स्थापित हो जाएगा। 'प्रतीत्यसमुत्पाद' में तो स्पष्टतः विज्ञान (चेतना) और नाम-रूप के मध्य कार्य-कारण-सम्बन्ध माना गया है। संयुत्तनिकाय में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को कर्म कह उसे विज्ञप्तिरूप (प्रत्यक्ष) मानी है । अंगुत्तरनिकाय में स्पष्ट किया गया है कि राग-द्वेष-मोहयुक्त होकर प्राणी (सत्व) मन-वचन-काय की प्रत्यक्ष प्रवृत्तियाँ करता है, उन प्रवृत्तियों से फिर राग-द्वेष- मोह. को उत्पन्न करता है। इस प्रकार यह संसार चक्र अनादि काल तक चलता रहता है, इसका कोई आदिकाल नहीं है।' मिलिंद प्रश्न में तो स्पष्टरूप से प्रतिपादित है कि नाम (चेतन-पक्ष) और रूप (भौतिक पक्ष) दोनों अन्योन्याश्रय-सम्बन्ध से सम्बद्ध हैं।' इसलिए गहराई से विचार करने पर प्रतीत होता है कि बौद्धदर्शन भी नाम और रूप दोनों के अन्योन्याश्रय से कर्म की निष्पत्ति मानता है। तुलनात्मक दृष्टि से यों कहा जा सकता है कि बौद्ध सम्मत राग-द्वेष मोह या वासना जैनसंम्मत भावकर्म है, और मन-वचन-काय की प्रत्यक्ष (विज्ञप्तिरूप) प्रवृत्ति जैनदर्शन - मान्य 'योग' है और इस प्रत्यक्ष कर्म से उत्पन्न वासना और अविज्ञप्ति द्रव्यकर्म है। क्योंकि अभिधर्म कोष में
१. (क) विसुद्धिमग्ग १७ / ११०
(ख) अभिधर्म कोष १/९
२. (क) प्रतीत्यसमुत्पाद
(ख) संयुत्तनिकाय
३. (क) अंगुत्तरनिकाय तिकनिपात सूत्र ३३/१, पृ. १३४
(ख) संयुत्तनिकाय १५/५/६ (भाग-२ पृ. १८१-१८२)
४. मिलिन्द प्रश्न, लक्षण प्रश्न द्वितीय
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