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४१० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
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हैं। आत्मा के साथ शरीर है, वहाँ तक मानव एक या दूसरे प्रकार से प्रभावित और परतन्त्र रहता है। यह पौद्गलिक शरीर ही संसारस्थ प्राणी की परतंत्रता का द्योतक है। इस परतंत्रता का मूल कारण कर्म है।
अतः जब तक शरीर है, तब तक आत्मा स्वतंत्र नहीं। कर्म-परतंत्र रहता है। इसी कारण कर्म का स्वभाव जीव (आत्मा) को परतंत्र करने का बताया गया है। शरीर को आहार की आवश्यकता होती है, आत्मा को आहार की कदापि आवश्यकता नहीं होती। वह अपने आप में अनाहारी है। उसे कभी क्षुधा नहीं लगती। भूख-प्यास लगती है शरीर को-पुद्गल को। आत्मा शरीर से बंधी हुई होने से उसे शरीर की भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-वृद्धि आदि की चिन्ता करनी पड़ती है। साथ ही शरीर का अंग मन प्रिय-अप्रिय, अच्छा-बुरा, लाभ-अलाभ, यशअपयश, सम्मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्दों में राग-द्वेष, मोह आदि कषायाविष्ट होकर भावकर्म के अधीन हो जाता है। शरीर की सुरक्षा तथा जीवनयात्रा के लिए उसे कुछ न कुछ आजीविका करनी पड़ती है। रोटी-रोजी के लिए, पेट की आग बुझाने के लिए मनुष्य सब कुछ करता है। शरीर है, इसीलिए तो यह सारा चक्र चलता है, साथ में राग-द्वेष का भी चक्र चलता है। अतः आहार की वृत्ति, कामवासना की वृत्ति, सुरक्षा की वृत्ति, सम्मानादि की वृत्ति आदि सब शरीर को लेकर है। मनुष्य शरीर की कामवृत्ति को लेकर सन्तानोत्पत्ति, पालन-पोषण, परिवार आदि के प्रति ममत्व तथा धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि अर्जित करके अहंताममतापूर्वक उनकी सुरक्षा के लिए प्रयत्न करता है। ये सब परतंत्रताएँ शरीर को लेकर ही तो हैं। इन समस्त, परतंत्रताओं के कारण रागद्वेषादि परिणामरूप भावकर्म और भावकर्म के कारण द्रव्यकर्म का चक्र चलता रहता है। इस अपेक्षा से आत्मा को कर्म का पारतंत्र्य स्वीकारना पड़ता
जीव की कब स्वतंत्रता और कब कर्म-परतंत्रता ?
वस्तुतः देखा जाए तो शुद्ध चैतन्य के कारण जीव में स्वतंत्रता की धारा सदैव प्रवाहित रहती है, किन्तु जब वह चैतन्य राग-द्वेषादियुक्त होता है तो परतंत्रता की धारा भी साथ-साथ प्रवाहित होती रहती है। इसीलिए छद्मस्थ जीव (आत्मा) में इन दोनों ही पक्षों-स्वतंत्रता और परतंत्रता का संगम बना रहता है। उसे किसी एक पक्ष में बांटा नहीं जा सकता। शरीर, कर्म और रागद्वेष से बंधा होने के कारण जीव स्वतंत्रता की अपेक्षा परतंत्रता १. कर्मवाद से सारांश पृ. ८८-८९
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