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४२८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . नशा चढ़ा। उसका फल तो उसे भोगना ही पड़ेगा। उसकी इच्छा न होते हुए भी भांग अपना चमत्कार दिखाएगी ही। अतः भांग पीने में व्यक्ति स्वतंत्र है, परन्तु उसका परिणाम भोगने में परतंत्र है।
- भगवद्गीता में इसी सिद्धान्त की प्ररूपणा की गई है। वहाँ कहा गया है-तेरा कर्म करने में अधिकार है। अर्थात्-कार्य (कम) करने में तू स्वतंत्र है, किन्तु उसके फल में तेरा अधिकार कदापि नहीं है। अर्थात्उसका फल भोगने में तू परतंत्र है।'
अतः सिद्धान्त यह हुआ है कि जीव अपने कर्तृत्व में स्वतंत्र है, किन्तु फल भोगने में परतंत्र है। अर्थात्-कर्तृत्व काल में वह स्वतंत्र है, किन्तु परिणामकाल में परतंत्र है। प्रत्येक कर्म करने में जीव स्वतंत्र, किन्तु परिणाम अवश्य स्वीकारना होगा
मोहम्मद साहब के अली नामक एक अनुयायी ने एक बार उनसे पूछा-“कर्म करने में मैं स्वतंत्र हूँ या परतंत्र ?"
__ मोहम्मद साहब ने कहा-“एक पैर ऊँचा रखकर दूसरे पैर से खड़े रहो।" __अली ने अपना दाहिना पैर ऊँचा किया और बाँये पैर से खड़ा हो गया।
फिर मोहम्मद साहब ने कहा-“अच्छा, अब बांया पैर ऊँचा उठाओ।"
अली ने कहा-"पैगम्बर! आप भी मेरा मजाकं करते हैं। दाहिना पैर ऊँचा उठाने के बाद, बाँया पैर कैसे ऊँचा उठा सकता हैं ? ऐसा करने पर तो मैं नीचे गिर पडूंगा। मैं तो दाँया पैर ऊँचा उठाकर बंध गया, अब बाँया पैर नहीं उठाया जा सकता।"
___ इस पर मोहम्मद साहब ने पूछा-"परन्तु यदि तुमने पहले से ही बाँया पैर ऊँचा उठाया होता तो उठा सकते थे या नहीं ?"
वह बोला-“अवश्य उठा सकता था। पहले से मैंने बाँया पैर उठाया होता तो मैं वैसा करने में स्वतंत्र था, वहाँ तक मैं बँधा नहीं था। वहाँ तक मैंने दोनों में से कोई भी पैर उठाने की क्रिया नहीं की थी। मगर बाँया पैर पहले उठाया होता तो भी मैं बंध जाता. फिर मैं दाँया पैर नहीं उठा पाता।"
१. (क) धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. ५०
(ख) “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" .
-गीता अ. २, श्लो. ४७
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