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४२६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
(आत्मा) का मूल स्वभाव चेतना है, यह सभी द्रव्यों से विलक्षण है। जीव के सिवाय किसी भी द्रव्य में चेतना नहीं पाई जाती। जीव का चैतन्य स्वभाव होने से वह स्वतंत्र है। लेकिन जब-जब जीव अपने चैतन्य-स्वभाव को भूल जाता है, चेतना की अग्नि विस्मृति की राख से ढक जाती है तब-तब वह कर्म-परतंत्र या पुद्गल-परतंत्र हो जाता है। आत्मा कर्म (क्रिया) करने में स्वतंत्र, फल भोगने में परतंत्र ... इस दृष्टि से जब हम विचार करते हैं तो एक तथ्य सामने उभर कर आता है। जीव कोई भी क्रिया, प्रवृत्ति अथवा कार्य करने में स्वतंत्र है, परन्तु उस क्रिया की प्रतिक्रियास्वरूप जो फल प्राप्त होता है, उसे भोगने में स्वतंत्र नहीं। विशेषावश्यकभाष्य में इस तथ्य को सापेक्षदृष्टि से उदाहरण देकर समझाया गया है कि कर्म की मुख्यतया दो अवस्थाएँ हैं-बंध (ग्रहण)
और उदय (फल)। जीव कर्मों को करने (बाँधने) में स्वतंत्र है, किन्तु उन कर्मों के उदय में आने पर फल भोगने में वह परतंत्र है, स्वतंत्र नहीं है, फल कर्माधीन मिलता है। जैसे कोई व्यक्ति नारियल या ताड़ के पेड़ पर चढ़ता है। वह चढ़ने में स्वतंत्र है। अपनी इच्छानुसार वह चढ़ सकता है। किन्तु असावधानीवश गिर जाए या गफलत से गिरने लगे, तब वह स्वतंत्र नहीं है। अथवा उक्त वृक्ष से झटपट उतरने में भी स्वतंत्र नहीं है, क्योंकि चढ़ गया तो उसे उतरना तो पड़ेगा ही। चढ़ना तो उसकी इच्छा से हुआ। लेकिन उतरना इच्छा से नहीं, विवशता से है। इसलिए चढ़ने में वह स्वतंत्र है, किन्तु उतरने में परतंत्र है।' चढ़ने का परिणाम उतरना है।
वहाँ आगे कहा गया है-"प्रायः संसारी जीव अधिकतर कर्म-परवश ही हैं। किन्तु कहीं-कहीं प्रबल धृति-बलादि के सद्भाव से कर्म भी जीववश हो जाते हैं। उदाहरणार्थ-कहीं किसी शहर आदि में धनिक (साहूकार-ऋणदाता) बलवान होता है; जबकि यदि कर्जदार (ऋणी) कहीं किसी छोटे से गाँव में जाकर बस जाता है तो वहाँ वह निर्धन कर्जदार (ऋणी) भी बलवान हो जाता है; क्योंकि वहाँ उस (नगरवासी) साहूकार (ऋणदाता) की नहीं चलती। प्रस्तुत प्रसंग में कर्म धनिक (ऋणदाता) सदृश है और कर्जदार (ऋणी) कर्मयुक्त जीव है। जिस प्रकार नगर आदि में साहूकार (धनी) बलवान् होता है। वह सरकार द्वारा उसे गिरफ्तार करवा
१. (क) अन्तर्मन की ग्रंथियाँ खोलें (आचार्य नानेश के जिनवाणी क.सि. में प्रकाशित
प्रवचन) से पृ. १२७ (ख) 'स्वतंत्र या परतंत्र ? (कर्मवाद में युवाचार्य महाप्रज्ञ के प्रकाशित लेख से
भावांश) पृ.८६-८७
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