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४२४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३).
आत्मा का उद्धार और पतन तथा स्वतंत्रता- परतन्त्रता अपने हाथ में
इस सम्बन्ध में गीतादर्शन और जैनदर्शन एक हो जाते हैं। गीता में भी आत्मस्वातंत्र्य का उपदेश देते हुए कहा गया है - "मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी आत्मा का उद्धार अपने आप ही करे। निराश होकर अपने द्वारा अपनी आत्मा का पतन या अवनति न करे। क्योंकि प्रत्येक जीव का आत्मा ही अपना बन्धु है और आत्मा ही अपना शत्रु है।" "
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महाभारत (शान्तिपर्व) में भी कहा गया है कि "यह आत्मा स्वतंत्रप्रेरणा से शुद्ध आत्मा (परमात्मा) के निकट पहुँचने पर शुद्धात्मा बन जाता है। यह जीवात्मा जो मूल में स्वतंत्र है, वह भी स्व-भाव या स्व-स्वरूप के अधीन (स्व-तंत्र) होकर चले तो नित्य, शुद्ध, बुद्ध (सिद्ध) स्वतंत्र परमात्मा में मिल जाता है, परमात्मभाव को प्राप्त हो जाता है।" इसके विपरीत जब जीवात्मा स्व- तंत्र को छोड़कर शरीर, इन्द्रिय, मन तथा दुराचरणों के चक्कर में (पर-भावों के तंत्र में) पड़ जाता है, तब कर्माधीनता की प्रबलता हो जाती है, और तभी उसका अधःपतन प्रारम्भ हो जाता है। सच्चा स्वातंत्र्ययुक्त आत्मा कब कर्म-परतंत्र, कब स्वतंत्र ?
पाश्चात्य विद्वानों का 'इच्छा स्वातंत्र्य' शब्द भी भारतीय आस्तिक दर्शनों की दृष्टि से ठीक नहीं है; क्योंकि इच्छा - स्वातंत्र्य का स्पष्टार्थ हो जाता है - मनमाना- आचरण- स्वेच्छाचार । इच्छा मन का धर्म है। बुद्धि, चित्त, मन आदि सभी कर्मात्मक जड़ प्रकृति के विकार माने जाते हैं। इसलिए सच्चा स्वातंत्र्य न तो बुद्धि का है और न मन आदि कर्मोपाधिक पदार्थों का है, वह केवल आत्मा का है। यह स्वातंत्र्य न तो कोई आत्मा को देता है और न ही कोई उससे छीन सकता है। स्वतंत्र परमात्मा के समान स्वतंत्र जीवात्मा जब अपने स्व-भाव - स्वरूप को भूलकर परभावों तथा कषायादि विभावों में रमण करने लग जाता है, तब वह कर्म - परतंत्र बन जाता है। कर्मोपाधिक बन्धन में पड़ता है। इसके बावजूद भी मूल में स्वतंत्र आत्मा यदि कर्मक्षय करने का स्वतः पराक्रम करे तो वह कर्म - परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर पुनः स्वतंत्र - कर्ममुक्त हो सकता है।
१. उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं, नाऽऽत्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
२. विशुद्धधर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान् ।
विमलात्मा च भवति समेत्य विमलाऽऽत्मना ।
स्वतंत्रश्च स्वतंत्रेण स्वतंत्रत्वमश्नुते ॥ - महाभारत शान्तिपर्व ३०८/२७-३०
३. कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य (लोकमान्य तिलक) (जिनवाणी कर्म सिद्धान्त
विशेषांक) से पृ. २६३
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- भगवद्गीता ६/५
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