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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
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घटक है। चैतन्यं, ज्ञान-दर्शन, आनन्द और शक्ति, ये आत्मस्वभाव ही उसके (आत्मा के) उपादान हैं। आत्मा में ही वह शक्ति है, उसी का यह स्वभाव है कि वह ज्ञानादि पर्यायों को उत्पन्न कर सकती है, अथवा उनका विकास कर सकती है। कर्म में यह शक्ति नहीं है कि वह आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति के तथा चैतन्य के पर्यायों को उत्पन्न कर सके; अथवा ज्ञानादि का विकास कर सके। क्योंकि ये सब कर्म के स्वभाव नहीं हैं, आत्मा के ही स्वभाव हैं। इस दृष्टि से आत्मा. में ही अपने ज्ञानादि स्वभाव के पर्यायों को उत्पन्न करने तथा विकसित करने का स्वतंत्रअबाधित कर्तृत्व है। शरीरादि-सम्बद्ध विकास आत्मिक विकास नहीं है
जैन कर्म-विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति कदाचित् यह कहे कि कर्मों के कारण शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित अंगोपांग आदि अच्छे मिलते हैं। यश मिलता है, मनोज्ञ पदार्थ मिलते हैं, इष्ट वस्तुओं का संयोग प्राप्त होता है। क्या यह आत्मा के विकास का परिणाम नहीं है ? इसका समाधान यह है कि यह सब आत्मा का विकास नहीं है। ये सब कर्मोपाधिक वस्तुएँ हैं। पौद्गलिक विकास है, जो शुभ-नामकर्म के द्वारा घटित होता है। नामकर्म या कोई भी कर्म आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव के विकास में सहायक नहीं, अवरोधक है, रोड़ा अटकाने वाला है, बाधक है, क्योंकि ज्ञानादि गुण आत्मा के स्वभाव हैं, कर्मों के स्वभाव नहीं है। आत्मा ही अपने ज्ञानादि स्वभाव का विकास करता है। कर्म तो ज्ञानादि के विकास में बाधा डालते हैं, अवरोध पैदा करते हैं। कर्म का स्वभाव : तप-त्यागादि की ओर प्रेरित करना नहीं
दूसरी दृष्टि से देखें तो प्रतीत होगा कि कर्म सांसारिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ ऐसा माध्यम है, जो प्रत्येक जीव को प्रभावित करता है, परन्तु वही सब कुछ नहीं है। यदि कर्म ही सब कुछ होता, वही सर्वशक्तिमान् होता तो व्यक्ति कर्म को काटने के लिए तप, संयम एवं त्याग की साधना-आराधना क्यों करता ? कोई भी कर्म अपने आप में ऐसा नहीं है, जो तप, संयम एवं त्याग की प्रेरणा देता हो। कर्म का ऐसा स्वभाव ही नहीं है कि वह प्राणी को तप, संयम एवं त्याग की ओर ले जा सके। कर्म का स्वभाव है-व्यक्ति को असंयम, प्रमाद एवं भोग की ओर ले जाना। चार प्रकार के अघाती कर्म माने जाते हैं-वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म
और गोत्रकर्म। ये चारों ही आत्मा (जीव) का पौद्गलिक विकास कराने १. देखें-कर्मवाद पृ.८८
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