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कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी ४०३
जीव के रागादि परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त मात्र
इसका स्पष्टीकरण करते हुए 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में कहा गया है; जैसे—मेघ के अवलम्बन से सूर्य की किरणों का इन्द्र- धनुषादिरूप परिणमन हो जाता है, इसी प्रकार स्वयं अपने चैतन्यमय (वैभाविक) भावों से परिणमनशील जीव के रागादिरूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त मात्र हो जाता है। वस्तुतः जीव के रागादि- परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों का कर्मरूप में परिणमन स्वतः हो जाता है।
१
जीव और पुद्गल के परिणमन में दोनों एक-दूसरे के लिए निमित्त
इसी तथ्य का तात्त्विक दृष्टि से विश्लेषण करते हुए समयसार में कहा गया है - " तात्त्विकं दृष्टि से विचार किया जाए तो जीव न तो कर्म में गुण उत्पन्न करता है और न कर्म ही जीव में कोई गुण उत्पन्न करता है, किन्तु जीव और पुद्गल का एक-दूसरे के निमित्त से विशिष्ट परिणमन हुआ करता है । "
अतः जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल (कर्मगर्वणा के पुद्गल) का कर्मरूप में परिणमन होता है। इसी प्रकार पौद्गलिक कर्म के निमित्त से जीव का भी परिणमन होता है।
२
पुद्गलों का कर्मभाव में परिणमन स्वतः
'प्रवचनसार' में भी इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है- “जीव की रागादिरूप परिणति- विशेष को प्राप्त कर कर्मरूप परिणमन शक्ति के योग्य पुद्गलस्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव से परिणत होते हैं। उनका कर्मत्वपरिणमन जीव के द्वारा नहीं किया गया है।
चूंकि कर्म के कारण मलिनता को प्राप्त आत्मा कर्म- संयुक्त परिणाम को
(क) परिणममानस्य चितश्चिदात्मकः, स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्त भाव पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥
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- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय १३ (टीका)
(ख) जीवकृतं परिणाम निमित्त मात्र प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्म भावेन ॥ 1. (क) ण वि कुव्वई कम्मगुणो जीवो, कम्म तहेव जीवगुणे । अणोण णिमित्रेण दु परिणाम जाण दोण्हपि ॥ (ख) जीवपरिणाम- हेदुं कम्मत पुग्गला परिणमति । पुग्गल - कम्म णिमित्तं तहेव जीवोवि परिणई ॥
- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय १२
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- समयसार ८१
समयसार ८०
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