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कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी
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परम्परा से कदाचित् कर्मबद्ध मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्म-द्रव्य का सम्बन्ध है। संसारी जीव और कर्म के इस अनादि-सम्बन्ध को 'जीवपुद्गल-कर्मचक्र' के नाम से अभिहित किया गया है। पुद्गलद्रव्य तथा तन्निमित्तक भाव भी कर्मरूप
अभिप्राय यह है कि अन्य दर्शन जहाँ जीव की प्रवृत्ति (क्रिया) और तज्जन्य संस्कार को ही कर्म कहकर रुक गये, वहाँ जैनदर्शन कर्मबद्ध संसारी जीव (आत्मा) को कथंचित् मूर्त मानकर पुद्गल द्रव्य को और उसके निमित्त से होने वाले राग-द्वेषरूप भावों को भी कर्म कहता है।' पुद्गलरूप कर्म का निरूपण जैनदर्शन में ही
इतने विवेचन से यह स्पष्ट है कि कर्म कारक जगत् प्रसिद्ध है। तथा जीव मन-वचन-काय द्वारा कुछ न कुछ करता है, यह सभी उसकी क्रिया या कर्म है, इसे जीवकर्म या भावकर्म कहते हैं। ये दो प्रकार के कर्म तो सबको स्वीकार हैं। परन्तु इस प्रकार के भावकर्म से प्रभावित (आकृष्ट) होकर कुछ सूक्ष्म जड़ (कम) पुद्गल-स्कन्ध जीव के अनेक प्रदेशों में प्रविष्ट हो जाते हैं, उसके साथ बँध जाते हैं। यह बात केवल जैनदर्शन ही बताता है। ये सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध अजीवकर्म या द्रव्यकर्म कहलाते है। ये रूप-रसादिधारक मूर्तिक होते हैं। जीव जैसे-जैसे कर्म करता है, उसके स्वभाव को लेकर ये द्रव्यकर्म उसके साथ बंधते हैं। अतः सिद्ध है कि कर्म पुद्गलरूप भी हैं, जिनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोहित हो जाते है। सूक्ष्म होने के कारण ये चर्मचक्षुओं से दृष्ट नहीं हैं।
१. पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना पृ. ११ से सार-संक्षेप २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. २ पृ. २५
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