________________
४०२
कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
पुद्गल का कर्मरूप में परिणमन: कैसे ?
जीव के रागादि-परिणामों के निमित्त से पुद्गल का कर्मरूप में परिणमन कैसे हो जाता है ? इसे समझाने के लिए केशवसिंह ने क्रियाकोष में कहा है- कोई व्यक्ति सूर्य के सम्मुख दर्पण रखकर उस दर्पण के आगे रूई रख देता है तो सूर्य और दर्पण का तेज मिलकर अग्नि प्रकट हो जाती है, वह रूई उससे जल जाती है। न तो अकेली रूई में ही अग्नि है, न ही. दर्पण में कहीं अग्नि है। सूर्य और दर्पण के साथ रूई का संयोग मिलने से निःसन्देह अग्नि पैदा हो जाती है। इसी प्रकार जीव के साथ उसके रागादि परिणामों के संयोग से आत्मा में स्थित पुद्गलों का कर्मरूप में परिणमन हो जाता है।
कर्म केवल संस्काररूप ही नहीं, पुद्गलरूप भी है
इसलिए कर्म केबल संस्काररूप ही न होकर, पुद्गलरूप भी है; एक वस्तुभूत पदार्थ है; राग-द्वेष परिणामयुक्त जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ उसी तरह घुलमिल जाता है, जैसे दूध में पानी । वह पदार्थ है तो भौतिक- पौद्गलिक, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया है कि जीव के कर्म अर्थात् - क्रिया के कारण से आकृष्ट होकर जीव के साथ बंध जाता है, चिपक जाता है। आशय यह है कि जहाँ अन्यदर्शन राग-द्वेष-मोहादि से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी अदृष्ट, धर्माधर्म, अपूर्व, कर्माशय, क्लेश आदि से माध्यम से जनित संस्कार को स्थायी मानते हैं, वहाँ जैन दर्शन का मन्तव्य है कि कर्म का इस संस्काररूप के सिवाय भी एक और रूप हैपुद्गलरूप। रागद्वेषाविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ आत्मा में एक प्रकार का द्रव्य-पुद्गल आता है, जो उसके राग-द्वेष परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बंध जाता है। कालान्तर में यही (कर्म) पुद्गल - द्रव्य जीव को शुभाशुभ फल देता है।
१. सूरज सम्मुख दर्पण धरै, रूई ताके आगे करै ।
रवि-दर्पण को तेज मिलाय, अगन उपज रूई बलि जाय ॥ ५४ ॥ नहिं अगनी इकली रूई माहि, दर्पणमध्य कहूँ है नांहि । दुनि को संयोग मिलाय, उपजै अगनि न संशै थाय ॥ ५५ ॥
-क्रियाकोष (केशवसिंह) २. “क्रिया नाम आत्मना प्राप्यत्वात् कर्म, तन्निमित्त प्राप्त परिणामपुद्गलोऽपि कर्म ।" - प्रवचनसार टीका गा. २५
३. देखें - जिनवाणी कर्म-विशेषांक में पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री का 'कर्म का स्वरूप' लेख पृ. ६४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org