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३९२. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
प्रकार से स्मृति का च्युत न होना ही धारणा है । ' कोई भी कार्य, क्रिया या प्रवृत्ति क्यों न हो, उसे निरन्तर करते रहने पर उसकी आदत या टेव पड़ जाती है, उसका अभ्यास हो जाता है। जैसे टाईप की मशीन पर टिप टिप करते रहने से कुछ ही दिनों में टाईप करने की आदत पड़ जाती है। . बैठे-बैठे पैर हिलाते रहने से या सदैव गर्दन लटकाकर चलने से अथवा कुछ अर्से तक किसी एक भाषा को बार-बार बोलते रहने से क्रमशः पैर हिलाने, गर्दन लटकाकर चलने तथा उस भाषा के बोलने की आदत पड़ जाती है। अतः कार्य जानने का हो, बोलने का हो, या कुछ भी करने का हो, सतत होते रहने पर उसकी टेव या आदत पड़ जाती है। वह आदत, टेव या वृत्ति ही संस्कार शब्द की वाचक है। इसे ही जानने के क्षेत्र में धारणा या स्मृति कहते हैं। बोलने या करने के क्षेत्र में या भोगने के क्षेत्र में इसे संस्कार या वृत्ति भी कहते हैं।
किसी भी पाठ या मंत्र को बार- बार रटने या दोहराने से वह स्मृति का विषय होकर ज्ञानगत धारणामय संस्कार बन जाता है।
मद्यपान या धूम्रपान करते रहने से उसकी कुटेव पड़ जाती है। ये सब कर्मगत संस्कार कहलाते हैं। बुरे व्यक्तियों की बार-बार संगति से बुरे तथा अच्छे व्यक्तियों, सज्जनों या साधुजनों की बार- बार संगति करने से अच्छे संस्कार पड़ जाते हैं। नशीली चीज का सेवन करने वाले व्यक्तियों के मन पर प्रारम्भ में उसका थोड़ा सा प्रभाव पड़ता है, परन्तु बार-बार उसका सेवन करने से वह उसके रोम-रोम में संस्कारगत वस्तु बन जाती है। चित्त पर पड़ा प्रभाव ही संस्काररूप बन जाता है
निष्कर्ष यह है कि अच्छा या बुरा कोई भी कार्य करने पर, उसका प्रभाव चित्त पर अवश्य पड़ता है। कार्य समाप्त होने पर भी चित्त पर पड़ा प्रभाव समाप्त नहीं होता। भले ही पहली बार में उस कार्य की आदत नहीं पड़ती, परन्तु बार-बार करते रहने पर वह आदत पक्की हो जाती है, वही संस्कार रूप बन जाती है।
प्रारम्भिक कार्य बार-बार करने पर सुदृढ़ कर्म - संस्कार
किसी ने देगची में चावल डालकर पकने के लिए आग पर रख दिये। प्रथम, द्वितीय आदि क्षणों में चावल सर्वथा नहीं पके, किन्तु आध घंटे के १. 'अविच्चुई धारणा होई ।' - विशेषावश्यक भाष्य
२. कर्मरहस्य पृ. १६० ३. वही, पृ. १६१
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