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कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी
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बौद्ध परम्परा में प्रवृत्ति और लोभादि त्रिपुटीवश संसार-चक्र .. बौद्ध परम्परा ने कर्म की अदृष्ट शक्ति पर गहन चिन्तन किया है। उसका मन्तव्य है कि लोभ (राग), द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है। तथा लोभ (राग), द्वेष और मोह से ही प्राणी मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ करता है और प्रवृत्तियों से वह पुनः राग, द्वेष और मोह उत्पन्न करता है। इस प्रकार प्रवृत्ति और लोभादि त्रिपुटीवश संसारचक्र सतत चलता रहता है। इस चक्र का न आदि है, न अन्त है, वह अनादि है।' बौद्ध परम्परा में कर्म के संस्काररूप में स्थानापन्न शब्द
बौद्धों ने कर्म को सूक्ष्म और मन-वचन-काय प्रवृत्ति से जनित माना है। प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप जो संस्कार (वासना) चित्त में पड़ते हैं, वे भी कर्म कहलाते हैं। अतः बौद्ध दृष्टि से कर्म से तात्पर्य प्रत्यक्ष प्रवृत्ति ही नहीं; किन्तु प्रत्यक्ष कर्मजन्य संस्कार भी है। बौद्ध परिभाषा में इसे वासना और अविज्ञप्ति कहां गया है। मानसिक क्रियाजन्य संस्काररूप कर्म को वहाँ वासना और वाचिक एवं कायिक क्रियाजन्य संस्काररूप कर्म को अविज्ञप्ति कहा है। 'अभिधम्मकोष' में इसे अविज्ञप्तिरूप और विसुद्धिमग्ग में इसे 'अरूपी' कहा है। सौत्रान्तिक मतानुसार कर्म का समावेश अरूप में है। वे अविज्ञप्ति को नहीं मानते। विज्ञानवादी बौद्ध दार्शनिक 'कम' के लिए 'वासना' शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रज्ञाकर का मत है कि जितने भी कार्य हैं, वे सभी वासनाजन्य हैं। शून्यवादी बौद्ध अनादि अविद्या का अपरनाम ही 'वासना' बताते हैं। . कर्म के सन्दर्भ में; अविद्या-परम्परा से संसारचक्र की परम्परा - .. 'मिलिन्दप्रश्न' में इसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया ......अविद्या के होने से संस्कार, संस्कार के होने से विज्ञान, विज्ञान के होने से नाम और रूप, नाम और रूप के होने से षडायतन और षडायतनों के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के १. (क) प्रमाण वार्तिकालंकार पृ. ७५
(ख) कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन (जिनवाणी विशेषांक) पृ.२१ २. (क) जिनवाणी कर्मसिद्धांत विशेषांक से पृ. २१-२२ - (ख) प्रमाणवार्तिकालंकार पृ. ७५
(ग) वही, पृ. ७५ (घ) जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. ४२४ (ङ) विसुद्धिमग्गो १७/११० (च) अभिधम्म कोष १/९
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