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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
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सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी कर्म-संस्कारवश संसारचक्र में स्थित रहता है। क्योंकि फल दिये बिना संस्कार का क्षय नहीं होता। क्लेशरूपी जल ही कर्म-बीजाकुरोत्पत्ति का कारण
वाचस्पति मिश्र का कथन है- “क्लेशरूपी जल से सिंचित बुद्धिरूपी भूमि में कर्मरूपी बीज अंकुरों को उत्पन्न करते हैं। जिसका समस्त कर्मरूपी जल तत्त्वज्ञानरूपी ग्रीष्मकाल से सूख चुका है, उस शुष्क-ऊषर भूमि में कर्म-बीजों का अंकुर कैसे उत्पन्न हो सकता है ? २ वैशेषिकदर्शन में कर्माशय (संस्कार) वश पुनः पुनः संसारबन्ध
प्रशस्तपादभाष्य में अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि को धर्म के और हिंसा, असत्य और स्तेय (चोरी) आदि को अधर्म के साधन बतलाते हुए कहा गया है- “अज्ञानी जीव को राग-द्वेषयुक्त वृत्ति से कुछ अधर्मसहित; किन्तु प्रकृष्टधर्ममूलक प्रवृत्ति करने से ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजापतिलोक, पितृलोक और मनुष्यलोक में अपने-अपने आशय ( कर्माशयसंस्कार) के अनुरूप इष्ट शरीर, मनोज्ञ इन्द्रियविषय और सुखादि का संयोग प्राप्त होता है। इसके विपरीत कुछ धर्मयुक्त, किन्तु प्रकृष्ट अधर्ममूलक प्रवृत्तियों के करने से प्रेतयोनि, तिर्यग्योनि आदि स्थानों में अनिष्ट शरीर, अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषय एवं दुःखादि का योग प्राप्त होता है। इसी प्रकार अधर्मसहित, किन्तु प्रवृत्तिमूलक धर्म से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकों में (जन्म लेकर) बार-बार संसार-बन्ध को करता है।
आचार्य प्रशस्तपाद ने चौबीस गुणों के अन्तर्गत माने गए 'अदृष्ट' गुण को संस्कार से पृथक् मानकर दो भागों में विभाजित किया है- धर्म और १. (क) “सम्यग्ज्ञानाधिगमाद्धर्मादीनामकरण प्राप्तौ।
- तिष्ठति संस्कारवशात् चक्र भ्रमिवत् धृतशरीरः ॥" -सांख्यकारिका ६७ (ख) “संस्कारो नाम धर्माधर्मी निमित्त कृत्वा शरीरोत्पत्तिर्भवति।........ संस्कारवशात् कर्मवशादित्यर्थः।"
-माठर वृति २. “क्लेशसलिलावसिक्तायां हि बुद्धिभूमौ कर्मबीजान्यंकुर प्रसवते। तत्त्वज्ञाननिदाघ-निपीत-सकलक्लेशसलिलायामूषराय कुतः कर्मबीजानामंकुर-प्रसवः ?
-सांख्यतत्त्व कौमुदी पृ. ३१५ ३. "अविदुषो रागद्वेषवतः प्रवर्तकाद् धर्मात् प्रकृष्टात् स्वल्पाऽधर्मसहितात् ब्रह्मेन्द्र
प्रजापति-पितृ-मनुष्य-लोकेषु आशयानुरूपैरिष्ट-शरीरेन्द्रिय-विषयसुखादिभिर्योगो भवति। तथा प्रकृष्टादधर्मात् स्वल्पधर्मसहितात् प्रेत-तिर्यग्योनि-स्थानेषु अनिष्ट-शरीरेन्द्रिय-विषय-दुःखादिभिर्योगो भवति। एवं प्रवृत्तिलक्षणाद् धर्माद् अधर्मसहिताद् देव-मनुष्य-तिर्यङ-नारकेषु पुनः पुनः संसार-बन्धो भवति।"
-वैशेषिक दर्शन, प्रशस्तपादभाष्य पृ. २८०-२८१
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