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कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी ३९९
अधर्म। इसी प्रकार वैशेषिक दर्शन ने धर्माधर्म का समावेश न्यायदर्शन की तरह 'संस्कार' में न करके 'अदृष्ट' में किया है; किन्तु है वह कर्माशय के अनुरूप ही।' धर्म-अधर्म का स्वरूप और अदृष्ट का कार्य
इच्छा-द्वेष-पूर्वक की जाने वाली अच्छी (शुभ) क्रिया (प्रवृत्ति) धर्म कहलाती है और बुरी (अशुभ) क्रिया अधर्म कहलाती है। इसी प्रकार शुभअशुभ प्रवृत्तिजन्य अदृष्ट को भी क्रमशः धर्म-अधर्म कहा जाता है। धर्मरूप अदृष्ट आत्मा में सुख पैदा करता है, जबकि अधर्मरूप अदृष्ट दुःख; क्योंकि शुभक्रिया का फल सुख होता है और अशुभक्रिया का फल दुःख।' वैशेषिकदर्शनमान्य अदृष्ट भी कर्मजन्य संस्काररूप है ___ चूंकि क्रिया तो क्षणिक है, इसलिए वह कालान्तर में या जन्मान्तर में फल कैसे दे सकती है ? इसी समस्या के हल के लिए वैशेषिकों ने “अदृष्ट" की कल्पना की, जो कि क्रिया और उसके फल के बीच में कड़ी के समान है। क्रिया को लेकर आत्मा में अदृष्ट पैदा होता है, जो अपना सुखरूप या दुखरूप फल आत्मा में उत्पन्न करके पूर्णतया भोग लिये जाने के पश्चात् ही निवृत्त होता है। आत्मा में अदृष्ट और उसके फल उत्पन्न होने में कारण
वस्तुतः क्रिया (प्रवृत्ति) नहीं इच्छा-द्वेष ही धर्माधर्मरूप अदृष्ट कारण माने गये हैं। प्रश्न होता है-क्रिया तो शरीर या मन करता है, ऐसी स्थिति में अदृष्ट और उसका फल आत्मा में कैसे उत्पन्न हो सकता है।
वैशेषिकों का उत्तर है कि धर्माधर्मरूप अदृष्ट की उत्पत्ति में हमने क्रिया को कारण न मानकर इच्छा-द्वेष को ही कारण माना है। अर्थात् जिस
आत्मा में इच्छा-द्वेष उत्पन्न होते हैं, उसी आत्मा में तज्जन्य अदृष्ट उत्पन्न . होता है, और उसी आत्मा में वह अदृष्टजन्य सुख या दुःख उत्पन्न होता
है। इच्छा-द्वेषनिरपेक्ष क्रिया अदृष्टोत्पादक नहीं है। संसकार और अदृष्ट में केवल नाम का अन्तर . नैयायिक और वैशेषिकों की मान्यता प्रायः समान है। अन्तर केवल यह है कि नैयायिक जहाँ धर्माधर्म का उल्लेख संस्कार शब्द से करते हैं, वहाँ
१. प्रशस्तपादभाष्य २. (क) जैनदृष्टिए कर्म (प्रस्तावना) पृ. २४-२५
(ख) प्रशस्तपाद भाष्य, गुणसाधर्म्य-प्रकरण ३. देखें- प्रशस्तपादभाष्य गुण-साधर्म्य प्रकरण
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