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कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी
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होता है, उस प्रवृत्ति से पुनः कार्मण शरीर पर संस्कार अंकित होते हैं। कुछ काल पश्चात् अंकित हुए वे संस्कार पुनः जागृत होते हैं और उन जागृत संस्कारों की प्रेरणा से जीव पुनः कर्मों में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार प्रवृत्ति और संस्कारों का यह चक्र प्रवाहरूप से अनादिकाल से चलता आ रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक जीव कर्मों की कार्य-कारण परम्परा से सर्वथा विरत नहीं हो जाता। प्रवृत्ति के साथ ही चित्तभूमि पर पदचिह्न अंकन
कोई भी जीव अपने बाह्य जगत् या आभ्यन्तर जगत् में जो कुछ भी प्रवृत्ति, कार्य या कर्म करता है, वह कार्य, प्रवृत्ति या कर्म तो उसी समय समाप्त हो जाता है किन्तु जाते-जाते उस जीव की चित्तभूमि पर अपना पदचिह्न उसी प्रकार अंकित कर जाता है, जिस प्रकार कच्चे रास्ते पर चलते हुए व्यक्ति के पैर उस पर अपने चिह्न अंकित कर जाते हैं। यह तो प्रत्येक व्यक्ति की अनुभव-गोचर वस्तु है। जिस प्रकार महिलाएँ घर के द्वार पर हाथ के थापे लगाती हैं, उनके हाथों की वह छाप (अंकन) लगाना समाप्त हो जाने के पश्चात् भी वहाँ छाप स्थित रहती है। इसी प्रकार प्राणी के द्वारा किया गया कार्य या कर्म समाप्त होने से पूर्व ही चित्तभूमि परकामण शरीर पर-अपना चिह्न अंकित कर देता है। यद्यपि यह अंकन (चिह्न) धुंधला अथवा अस्पष्ट होने से पहले-पहल हमारे दृष्टिपथ में नहीं आता, तथापि कालान्तर में कुछ गहरा हो जाने पर वह प्रत्यक्ष रूप से सामने आकर किसी न किसी रूप में खड़ा हो जाता है। यद्यपि अपनी पूर्वावस्था में यह अत्यन्त बारीक होता है। कच्ची मिट्टी पर पड़े पदचिह्न की भांति शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, तथापि कालान्तर में परिपक्व हो जाने पर यह पाषाण पर उत्कीर्ण रेखा की तरह मिटाने से भी नहीं मिटता। संस्कार, धारणा, आदत, वृत्ति, स्मृति आदि समानार्थक हैं : क्यों और कैसे? .. कार्य या कर्म के पदचिह्न का अर्थ यहाँ मिट्टी पर पड़े हुए पदचिह्न जैसा कुछ नहीं है। न ही चित्तभूमि या कार्मण शरीर मिट्टी के जैसा है, जिस पर चिह्न अंकित हुआ दिखाई दे सके। यह तो समझाने के लिए उपमा दी गई है। वस्तुतः चित्तभूमि या कार्मण शरीर दोनों ही ज्ञानात्मक या भावात्मक हैं। इसलिए उस पर पड़ा हुआ चिह्न भी ज्ञानात्मक या भावात्मक जैसा ही कुछ है। उसे शास्त्रीय भाषा में वृत्ति, धारणा या संस्कार कहते हैं। एक
१. कर्मरहस्य, (भावाथ) पृ. १२५ २. वही, (सारांश) पृ. १५९ ३. कर्मरहस्य से पृ. १५९
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