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३८८ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
हुई। देखना तो बंद हो गया, किन्तु देखने की वह स्मृति मस्तिष्क के स्मृति कोष्ठों में उसी प्रकार अंकित हो गई, जैसे फोनोग्राफ की चूड़ी पर या टेपरिकार्डर के केसेट पर आवाज अंकित हो जाती है। जो अंकित हो गया, वह समाप्त न होकर अपना संस्कार छोड़ गया। उस क्रिया की एक वृत्ति बन गई और एक प्रतिक्रिया अवशिष्ट रह गई। बाद में जैसे ही कोई निमित्त मिलता है, उस संस्कार की स्मृति उभर आती है, वह वृत्ति उत्तेजित हो जाती है। उस वस्तु या क्रिया की स्मृति आते ही उसे फिर देखने की ललक उठती है। जैसे खीर आदि मीठी चीज खाने के बाद उसकी मीठीडकार आती है, अथवा खट्टी चीज खाने पर जिस समय उस खट्टी चीज की स्मृति होती है, उस समय मुंह में पानी आने लगता है। इससे यह तथ्य फलित होता है कि क्रिया समाप्त हो जाती है, परन्तु प्रतिक्रिया समाप्त नहीं होती। वह चलती रहती है। उसकी श्रृंखला दीर्घकाल तक चलती रहती है। एक बार की क्रिया सहस्राधिक बार दोहराई जाती है। आशय यह है कि एक बार जब प्रवृत्ति की जाती है तो दूसरी-तीसरी बार भी उस प्रवृत्ति को करने की भावना जागती है। फिर उसका स्मरण होता है और पुनः उसे करने की ललक होती है। यह बार-बार उसी क्रिया - प्रवृत्ति को करने का तथ्य ही 'कर्म' का सिद्धान्त है । '
एक बार भी प्रवृत्ति करना - कर्मबन्धन में स्वयं को डालना है। यह ऐसा बन्धन है कि फिर उस प्रवृत्ति की पकड़ से छूटना उसके वश की बात नहीं रहती। एक बार भी यदि मन से, वचन से या शरीर से कुछ किया तो फिर न करना आसान नहीं रहता । फिर तो ऐसा ही हो जाता है; जैसेएक बार जो मार्ग बन गया, उसे मिटा पाना आसान नहीं होता। फिर तो आदमी जाने-अनजाने उसी मार्ग से जाने का अभ्यस्त हो जाता है। प्रमाद ही संस्काररूप कर्म (आस्रव) का कारण
इसीलिए भगवान महावीर ने कहा - "( प्रवृत्ति में ) प्रमाद को कर्म (कर्म का हेतु-आस्रव) और अप्रमाद को अकर्म (संवर) कहा है।” इसलिए ‘समय मात्र भी प्रमाद मत करो'; क्योंकि एक समय की या एक बार की भूल (प्रमाद) की हजार बार आवृत्ति हो सकती है।
संस्कार का निर्माण : कब और कब नहीं ?
अभिप्राय यह है कि अगर व्यक्ति जागरूक और अप्रमत्त रहकर मन, वचन, काया से किसी प्रवृत्ति या क्रिया को नहीं करता है तो उसकी
१. जैनयोग से सारांश उद्धृत पृ. ४०
२.
(क) 'पमाय' कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं । ' (ख) 'समयं गोयम ! मा पमायए । '
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सूत्रकृतांग १/१४।१
- उत्तराध्ययन अ. १० गा. १ से ३६ तक
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