________________
कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३८५
के रूप में चैतन्ययुक्त पुरुष (आत्मा) दोनों ही जैनदर्शनसम्मत क्रमशः द्रव्यकर्म और भावकर्म के समान हैं । दोनों में परस्पर कार्य-कारणभाव या निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। इन दोनों की उपस्थिति में ही कर्म द्रव्य-भाव रूप में बँधता है । इस प्रकार गीता में प्रच्छन्नरूप से द्रव्यकर्म और भावकर्म का संकेत मिलता है। निष्कर्ष
कर्म के इन दोनों रूपों पर विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्यों का विस्तृतरूप से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भावकर्म के विषय में किसी दार्शनिक को कोई आपत्ति नहीं है । सभी दार्शनिकों के मतानुसार राग, (लोभ) द्वेष, और मोह-भाव कर्म अथवा कर्म के कारणरूप हैं । जैनदर्शन में जिसे द्रव्यकर्म कहा गया है, उसी को अन्य दार्शनिक कर्म कहते हैं, इसी को ही वे संस्कार, वासना, अविज्ञप्ति, माया, अदृष्ट या अपूर्व नाम से पुकारते हैं । वस्तुतत्त्व वही है । अतः जैनकर्म-विज्ञानशास्त्रियों द्वारा कर्म को भावकर्म और द्रव्यकर्म, इन दो रूपों में प्रस्तुत करना युक्तियुक्त है । कर्म के द्रव्यात्मक और भावात्मक दोनों पक्षों को स्वीकार करने पर ही कर्म की सर्वांगीण व्याख्या हो सकती है ।
१. जैन कर्म-सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जी जैन) से .. सार-संक्षेप पृ. १७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org