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३८४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
'मानसिक क्रियाजन्य संस्कार-कर्म को वासना और वाचिक-कायिक.. क्रिया-जन्य संस्कार-कर्म को अविज्ञप्ति कहा गया है। मीमांसादर्शन में भावकर्म और द्रव्यकर्म की संगति
'मीमांसादर्शन' यज्ञ-यागादि कामनाजन्य कर्म को 'कर्म' मानकर उसके फलप्रदान के लिए 'अपूर्व' नामक पदार्थ को स्वीकार करता है। कुमारिल भट्ट ने 'अपूर्व की व्याख्या करते हुए कहा है कि अपूर्व का फलितार्थ है-योग्यता। जब तक यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान नहीं किया जाता तब तक यज्ञादि कर्म और पुरुष दोनों ही फल-स्वर्गरूपफल उत्पन्न करने में अयोग्य-असमर्थ होते हैं। अनुष्ठान के पश्चात् ऐसी योग्यता उत्पन्न होती है, जिससे कर्ता को स्वर्गरूप फल मिलता है। अपूर्व से संस्कार या शक्ति प्रादुर्भूत होती हैं, वह वेद-विहित कर्म से ही होती है, अन्य कर्मजन्य संस्कार से नहीं। मीमांसकों का कथन है अपूर्व एक शक्ति या योग्यता है, जिसका आश्रय आत्मा है । अतः आत्मा के समान 'अपूर्व भी अमूर्त है । यद्यपि द्रव्यकर्म अमूर्त नहीं, तथापि वह अपूर्व के सदृश अतीन्द्रिय तो है ही, इसलिए अपूर्व को जैनसम्मत द्रव्यकर्म के स्थान में माना जा सकता है। मीमांसकों को निम्नोक्त क्रम मान्य है- कामनाजन्य कर्म, यागादि प्रवृत्ति और यागादि-प्रवृत्तिजन्य अपूर्व । जैन दृष्टि से मीमांसासम्मत कामना या तृष्णा को भावकर्म, यागादि प्रवृत्ति को योग व्यापार, तथा अपूर्व को द्रव्यकर्म कहा जा सकता है। भगवद्गीता में प्रकारान्तर से द्रव्यकर्म-भावकर्म
यद्यपि भगवद्गीता सांख्यदर्शन के मन्तव्य से प्रभावित है । वह बन्धन को सांख्योक्त प्रकृति' (त्रिगुणात्मक जड़ प्रकृति) से सम्बद्ध और आत्मा को 'अकर्ता मानती है । परन्तु गीता में बताया गया है कि जब तक आत्मा (पुरुष) अहंकार से युक्त नहीं होता, तब तक बन्धन नहीं होता। अतः सिद्ध है कि आत्मा का अहंभाव जो चेतनात्मक (भावात्मक) है और बन्धन का उपादान कारण है, और जड़-प्रकृति उस अहंभाव का निमित्त कारण है । अर्थात् अहंकार के लिए निमित्त के रूप में प्रकृति, और उपादान १. (क) आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. १०७
(ख) अभिधर्म कोष, चतुर्थ परिच्छेद
(ग) Keith: BuddhistPhilosophy,p.203. २. तंत्रवार्तिक २/१/१५, तथा पृ. ३९५-३९६ ३. तंत्रवार्तिक पृ. ३९८ ४. आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. १०९
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