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'३८६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
| कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी
कर्म ः कार्य-कारण का एक नियम
___ कर्म सांसारिक प्राणियों के जीवन से बँधा हुआ एक नियम है। यह प्रत्येक क्रिया के साथ सन्निहित होने वाला सिद्धान्त है। जिन प्रत्यक्षदर्शी सर्वज्ञ आप्त पुरुषों ने कर्म की खोज और अनुभूति की। उन्होंने कर्म के नियम को भी खोजा और उसका अनुभव भी किया। जैसे वैज्ञानिक प्रकृति के नियम की खोज करता है, वैसे ही कर्म-विज्ञान के ज्ञाता-द्रष्टा महापुरुषों ने बुद्धि के स्तर पर ही नहीं, अनुभूति के स्तर पर भी कर्म के नियम की शोध की। वह नियम है-कार्य-कारण का या क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम। अर्थात्-कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता। आत्मा का बन्धन भी बिना कारण के नहीं होता।
नियम एक प्रकार की शाश्वत एवं अंटल व्यवस्था है। वह स्वाभाविक होता है, बनाया नहीं जाता। भगवान् महावीर ने कहा- “जो नियम है, धर्म है; वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, जिनोपदिष्ट है।" वह नियम इस प्रकार है- जहाँ स्वाभाविक क्रिया नहीं है, वैभाविक क्रिया है, वहाँ आत्मा कर्म से बद्ध होती है। आत्मा की वैभाविक क्रियाएँ कर्म हैं
'मैं जानता-देखता हूँ' यह आत्मा का अपना स्वभाव है, किन्तु 'मैं कहता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सोचता हूँ,' इत्यादि क्रियाएँ या प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक नहीं हैं, सांयोगिक हैं, वैभाविक हैं। आत्मा और शरीर का यह संयोग प्राण-शक्ति को उत्पन्न करने का निमित्त बनता है। प्राण-शक्ति अर्थात्-शरीरस्थ तैजस् शक्ति-ऊर्जा शक्ति। उसी ऊर्जा शक्ति के संचालन से कहने, सुनने, सोचने, खाने-पीने और श्वास लेने-छोड़ने आदि की क्रियाएँ होती हैं, जो आत्मा की न होने से अस्वाभाविक हैं, वैभाविक हैं। वे समस्त क्रियाएँ मानसिक, वाचिक या कायिक हैं, वे संयोगज हैं। 'मैं अमुक कार्य करता हूँ,' इसमें “मैं" अलग हो गया, 'कार्य' अलग हो गया। इसमें
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