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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
मन्दरूप में होंगे तो द्रव्य कर्म भी आत्मा के साथ उतने ही मन्दरूप मेंशिथिलरूप में बंधेगे।' द्रव्य-भावकर्म की तीव्रता-मन्दता क्या है, क्या नहीं?
द्रव्यकर्म की तीव्रता का अर्थ है-कार्मणवर्गणा के पुद्गल-परमाणुओ का संख्या में अधिक होना, उनमें शुभ-अशुभ रस भी उत्कट मात्रा में होना तथा उनकी स्थिति भी लम्बी होना। इसके विपरीत द्रव्यकर्म की मन्दता का अर्थ है-कार्मण-वर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं का आत्मा के साथ कम संख्या में चिपटना, उनमें शुभाशुभ रस भी मन्दरूप में होना और उनकी स्थिति-कालावधि भी अल्प होनी।२
इसे एक उदाहरण से स्पष्टतः समझलें-दो घड़े हैं, एक घड़ा तेल का है, और दूसरा बालू से भरा हुआ सूखा घड़ा है। रज जड़ है, अज्ञानी है, उसे स्व-पर का कोई ज्ञान नहीं है। फिर भी वह तेल वाले घड़े पर ही अधिक मात्रा में चिपकेगी और अधिक देर तक लगी रहेगी, क्योंकि तेल में स्निग्धता, चिकनाई तथा चिपकने की शक्ति अधिक है। बालू वाले घड़े पर रज कम आएगी। आएगी तो भी थोड़ी देर टिककर हवा में उड़ जाएगी। जितना भावकर्म तीव्र-मन्द, उतना ही सूक्ष्मकर्म तीव्र-मन्द
इसी प्रकार सूक्ष्मकर्म-रज समग्र लोक में व्याप्त है। आत्मा में भावकर्म की अर्थात् राग-द्वेषादि परिणामों की जितनी अधिक स्निग्धता, तीव्रता या तीव्र अध्यवसाय होंगे, द्रव्यकर्म भी उतने ही अधिक तीव्ररूप से आत्मा पर चिपकेंगे। इसके विपरीत रागादि परिणामरूप भावकर्म की स्निग्धता-तीव्रता जितनी कम होगी, द्रव्यकर्म भी उतने ही कम और शिथिलरूप में आत्मा के साथ लगेंगे।'
वस्तुतः द्रव्यकर्म और भावकर्म एक ही आत्मारूपी सिक्के के दो पहलू हैं। जैनकर्म-विज्ञान-वेत्ताओं ने द्रव्यकर्म की अपेक्षा भावकर्म को अधिक गम्भीर और उत्कट मानकर इससे बचने का एवं शुभध्यान, अनुप्रेक्षा, समभाव, क्षमा, तितिक्षा आदि द्वारा भावों को शुद्ध बनाकर कर्मों की तीव्रता को कम करने, प्रभाव को क्षीण करने का निर्देश दिया है। . __अन्य दर्शनों ने कर्म के दो रूप-भावकर्म और द्रव्यकर्म को पृथक्पृथक् नामों से स्वीकार किया है।
१. (क) आत्म मीमांसा से पृ. ९८-९९
(ख) कर्मवाद : एक अध्ययन (पं. सुरेशमुनि) से पृ ३४-३५ २. वही, पृ. ३४-३५ ३. वही पृ. ३५
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