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कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३७७
वाली प्रवृत्ति को जैन-परिभाषा में 'योग' कहा जाता है। संसारी जीवों के कषायरूप या राग-द्वेषादिरूप आन्तरिक परिणामों का प्रादुर्भाव भी योगों (मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों) से होता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तोसांसारिक आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति जब राग-द्वेषमोह या कषाय से रंजित होती है, तभी भावकर्म कहलाती है और इन से द्रव्यकर्म को ग्रहण करके जीव बंधनबद्ध होता है। इस दृष्टि से आत्मा की प्रवृत्ति एक होते हुए भी अपेक्षा से उसके पृथक्-पृथक् दो नाम-योग रूप और कषायरूप रखे गए हैं।' दोनों कर्म साथ-साथ आत्मा से सम्बद्ध ____ आशय यह है कि भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों ही साथ-साथ आत्मा से सम्बद्ध होते हैं। क्रोधादि चार कषायों या राग-द्वेषादि परिणामों के कारण आत्मप्रदेशों में एक प्रकार की हलचल-सी पैदा होती है। फलतः आत्मप्रदेशों के पार्ववर्ती अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल-परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होकर उससे सम्बद्ध हो जाते हैं। वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं, इनके साथ ही भावकर्म लगे हुए होते हैं। यद्यपि कर्म के बन्ध में योग और कषाय दोनों को ही साधारणतया निमित्त कारण माना गया है, तथापि कषाय को भावकर्म मानने का कारण यह है कि योग-व्यापार की अपेक्षा रंग से रंजित करने वाला कषाय का महत्व अधिक है। जितना कषाय तीव्र-मन्द उतना ही कर्म का बन्ध तीव्र-मन्द - जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों का कथन है कि जिस प्रकार रंग से रहित कपड़ा एकरूप ही होता है, उस प्रकार कषाय के रंग से अरजित (रहित) मन-वचन-काया का योग (व्यापार) एकरूप होता है। जिस प्रकार रंगे हुए कपड़े का रंग कभी हलका और कभी गहरा होता है, इसी प्रकार योगव्यापार के साथ कषाय का रंग भी कभी तीव्र होता है, कभी मन्द। कषाय के रंग की तीव्रता-मन्दता के अनुसार ही योग-प्रवृत्ति तीव्र-मन्द होगी। इसका फलितार्थ यह निकला कि भावकर्म की जितनी-जितनी तीव्रतामन्दता होगी द्रव्यकर्म का बन्ध भी उतना-उतना तीव्र-मन्द होगा। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आत्मा के राग-द्वेष आदि भाव (भावकम) जितने-जितने तीव्र होंगे, पुद्गल कर्म-द्रव्यकर्म भी आत्मा के साथ उतने-उतने तीव्र-रूप में बंधेगे। इसके विपरीत, यदि आत्मा में राग-द्वेष आदि भाव (भावकम) १. 'आत्म मीमांसा' से पृ. ९८ २. वही, पृ. ९९
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