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कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप
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द्रव्यकर्म की व्याख्या
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार "कर्म-पुद्गल से तात्पर्य उन जड़परमाणुओं (शरीर-रासायनिक तत्त्वों) से है, जो प्राणी की किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे अपना सम्बन्ध स्थापित करके कर्म-शरीर की रचना करते हैं और समय-विशेष के पकने पर अपने फल (विपाक) के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियाँ उत्पन्न कर अलग हो जाते हैं। इन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं।" कर्मशब्द का अभिधेयार्थ और व्यञ्जनार्थ ___अभिप्राय यह है कि 'कर्म' शब्द का सामान्य अभिधेयार्थ क्रिया है, किन्तु जब उसके व्यंजनार्थ को ग्रहण किया जाता है, तब जीव के द्वारा होने वाली क्रिया में आत्मशक्तियों को आवृत करने वाले कार्मण वर्गणा के तथा अन्य पौद्गलिक परमाणुओं के संयोग को, तथा उस संयोग के कारण आत्मा में समुत्पन्न विषय-कषायों के संस्कारों के कर्मरूप से परिणमन को भी कर्म कहा जाता है। कर्म के समानार्थक शब्द : विभिन्न परम्पराओं में
__ इन्हीं संस्कारों को लेकर परलोकवादी जितने भी दर्शन हैं, उनका मन्तव्य है कि प्रत्येक शुभ या अशुभ कार्य अपने पीछे संस्कार छोड़ जाते हैं। इन्हीं संस्कारों का 'कर्म' के समानार्थक शब्द के रूप में उन्होंने प्रयोग किया है।
जैन दार्शनिकों ने जिसे 'कर्म' कहा है, उसके भी पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग आगमों और ग्रन्थों में यत्र-तत्र मिलते हैं। जैन आदि पुराण में 'कर्म' शब्द केवल क्रियारूप में ही परिलक्षित नहीं होता, अपितु कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्दों के रूप में विभिन्न अर्थों को अभिव्यक्त किया गया है-"विधि (कानून या प्रकृति के अटल नियम), स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत और ईश्वर, ये कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द हैं।"२ अन्य दर्शनों ने भी कर्मशब्द के समानार्थक माया, अविद्या, अपूर्व, वासना, अविज्ञप्ति, आशय, अदृष्ट, संस्कार, भाग्य, दैव, धर्माधर्म आदि शब्द प्रयुक्त किये हैं। ____ आशय यह है कि सभी आस्तिक धर्मों और दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है, जो आत्मा की विभिन्न शक्तियों को, तथा आत्मा की
१. जैनकर्म-सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. १२ २. विधिः स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम्। . ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः॥ -आदिपुराण (महापुराण) ४/३७
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