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कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३६७
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कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म
कर्म का द्रव्यात्मक एवं भावात्मक रूप
जैनदर्शनसम्मत कर्म के स्वरूप को सर्वांगीण रूप से समझने के लिए कर्म के भावात्मक और द्रव्यात्मक दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है। आत्मा के मानसिक विचार और उन विचारों (मनोभावों) के प्रेरक या निमित्त; ये दोनों ही तत्त्व 'कर्म' में ताने-बाने की तरह मिले हुए हैं। कर्मविज्ञान की समुचित व्याख्या के लिए कर्म के आकार (Form) और उसकी विषयवस्तु (Matter) दोनों पर ध्यान देना आवश्यक है। आत्मा के मनोभाव उसके आकार हैं, और जड़-कर्म-परमाणु उसकी विषयवस्तु है । '
'गोम्मटसार' में कर्म के इन चेतन और अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हुए कहा गया है- कर्मसामान्य भावरूप कर्मत्व की दृष्टि से एक ही प्रकार का है, किन्तु वही कर्म द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। ज्ञानावरणीयादि पुद्गलद्रव्य का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति, अथवा उस पिण्ड में फल देने की शक्ति भावकर्म है।
कर्म का निर्माण : जड़ और चेतन दोनों के मिश्रण से
परन्तु जैनदर्शनसम्मत कर्म - विज्ञान का अध्ययन - मनन करते समय इस तथ्य को अवश्य याद रखना चाहिए कि कर्म का निर्माण जड़ और चेतन दोनों के सम्मिश्रण से ही होता है। जड़ और चेतन दोनों के सम्मिश्रण हुए बिना कर्म की रचना हो नहीं सकती । द्रव्यकर्म हो या भावकर्म, दोनों में जड़ और चेतन दोनों प्रकार के तत्त्व मिले रहते हैं। यद्यपि द्रव्यकर्म में पुद्गल की मुख्यता और आत्मिक तत्त्व की गौणता होती है, जबकि भावकर्म में
१. देखें - जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. १३
२. (क) "पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ति भावकम्मं तु । "
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- गोम्मटसार कर्मकाण्ड ६ ( आचार्य नेमिचन्द्र ) —वही, (कर्मकाण्ड) ६/६
(ख) कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोति होदि दुविहं तु ।
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