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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
है, उनके संस्कार से युक्त कार्मण-पुद्गल और (३) वे भाव (रागद्वेषादि), जो कार्मण पुद्गलों में संस्कार के कारण होते हैं। ' संस्कारयुक्त कार्मणपुद्गल : चिरकाल तक जीव से सम्बद्ध
जीव की स्पन्दनक्रिया और भाव उसी समय निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु संस्कारयुक्त कार्मण-पुद्गल जीव के साथ चिरकाल तक सम्बद्ध रहते हैं। ये यथासमय यथायोग्यरूप से अपना काम करके ही निवृत्त होते हैं। ये कालान्तर में फल देने में सहायता करते हैं, इसलिए इनकी द्रव्यकर्म में परिगणना की जाती है ।
त्रिविध द्रव्यकर्म : विभिन्न अपेक्षाओं से
आशय यह है कि संसारी जीव के रागादि परिणाम और स्पन्दनक्रिया होती है, इसलिये ये दोनों तो उसके कर्म हैं ही, किन्तु इनके निमित्त से कार्मण नामक पुद्गल कर्मभाव ( जीव की आगामीपर्याय के निमित्त भाव ) को प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से इन्हें भी कर्म कहते हैं । ये त्रिविध द्रव्यकर्म हैं।
कार्मण पुद्गल 'कर्म' क्यों और कैसे कहे जाते हैं ?
पंचाध्यायी में बताया गया है कि "जीव तथा पुद्गल में भाववती तथा क्रियावती शक्ति पाई जाती है। शेष चार द्रव्यों (धर्म, अधर्म, आकाश और काल) में तथा पूर्वोक्त दो सहित छही द्रव्यों में भाववती शक्ति उपलब्ध होती है। प्रदेशों के संचलनरूप परिस्पन्दन को क्रिया कहते हैं और एक वस्तु में ही जो धारावाही परिणमन होता है, वह भाव है।" इससे स्पष्ट है कि जीव और पुद्गल में हलन चलन पाये जाने से जीव और पुद्गलविशेष का बन्ध होता है, क्योंकि जीव में वैभाविक शक्ति का सद्भाव है। इसलिए रागादि भावों के कारण वैभाविकशक्तिविशिष्ट जीव कार्मणवर्गणा को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस कारण जीव का कर्मों के साथ सम्बन्ध (संश्लेष) होता है। इससे कार्मण पुद्गल भी कर्मभाव को प्राप्त होने से वे भी कर्म कहलाते हैं। '
१. महाबन्धो पु. २ की 'कर्ममीमांसा प्रस्तावना' से पृ. १७ २. (क) वही, पृ. १७
(ख) तद्व्यतिरिक्त द्रव्यकर्म-निक्षेप
३. (क) भाववन्तौ क्रियावन्तौ द्वावेतौ जीव- पुद्गलौ । तौ च शेष-चतुष्कं च षडेते भाव-संस्कृताः॥ तत्र क्रिया- प्रदेशानां परिस्पन्द-संचलनात्मकः । भावस्तत्परिणामोऽस्ति धारावाह्येकवस्तुनि ॥ (ख) अयस्कान्तोपलाकृष्ट-सूचीवत् तद- द्वयोः पृथक् ।
- पंचाध्यायी अ. २/ २५-२६
अस्ति शक्तिः विभावाख्या मिथो बन्धाधिकारिणी ॥ -पंचाध्यायी अ. २/४२
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