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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
आभ्यन्तर क्रियाएँ भी हैं, जो विशेष स्पन्दन रूप होती हैं। इन्हें योग कहते हैं। जैसे कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-"काय, वचन और मन का व्यापार, योग है। - योग एक विशिष्ट प्रकार की स्पन्दन क्रिया है, जो काय, वचन और मन के निमित्त से होती है। इसी को षट्खण्डागम में त्रिविध प्रयोग कर्म' कहा गया है। यथा-"वह तीन प्रकार का है-मनःप्रयोग-कर्म, वचनप्रयोगकर्म और काय-प्रयोगकर्म। वह संसार-अवस्था में स्थित जीवों के और सयोगिकेवलियों के होता है।"२ ___ इन तीनों योगों या प्रयोगों में काय, वचन और मन आलम्बन हैं और जीव की स्पन्दनक्रिया कर्म है। अतः काय के निमित्त से जीव की स्पन्दनकिया को काययोग, वचन के निमित्त से उसकी स्पन्दनक्रिया को वचनयोग और मन के निमित्त से होने वाली उसकी स्पन्दनक्रिया को मनोयोग कहते
स्पन्दनक्रियाजन्य संस्कार भी कर्मशब्द के अर्थ में सन्निहित
जीव की कर्मरूपी यह स्पन्दनक्रिया यहीं समाप्त नहीं हो जाती, अपितु जिन-जिन भावों से यह स्पन्दनक्रिया होती है, उसके संस्कार अपने पीछे छोड़ जाती है। इसी तथ्य को 'कर्मवाद और जन्मान्तर' में व्यक्त किया गया है-"ये (कर्मजन्य) संस्कार चिरकाल तक स्थायी रहते हैं। इसका दृष्टान्त हमारे लिये अपरिचित नहीं है। हम जिसे स्मृति कहते हैं, जिसके फलस्वरूप पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण होता है, वह संस्कार के सिवा और है ही क्या ? स्मृति की यह करामात हम प्रतिदिन देखते हैं। प्राकृतिक जगत् में भी संस्कार के कुछ कम दृष्टान्त नहीं हैं। फोनोग्राफ (या टेपरिकार्डर) यंत्र के समीप कोई गीत गाया जाए तो वह गीत संस्कार के रूप में उस यंत्र में सुरक्षित रहता है। पीछे युक्ति से उसका उद्बोधन करने पर वही गीत पुनः श्रुतिगोचर होने लगता है।" (टेलिविजन, वीडियो कैसेट आदि यंत्रों में शब्दों के अतिरिक्त वह दृश्य भी अंकित होकर संस्काररूप में सुरक्षित हो जाता है, जिसे पुनः-पुनः देखा-सुना जा सकता है।)
"किन्तु इन (प्रकृतिजन्य) संस्कारों का आधार जीव को नहीं माना जा सकता, क्योंकि जीव का संस्कार पुद्गल के आलम्बन से होता है। अतः १. "काय-वाङ्-मनःकर्म योगः।"
-तत्त्वार्थसूत्र अ. ६, सू. १ २. ते तिविह - मणप्पओअकम्मं वचिपओअकम्म कायपओअकम्मं ॥१६॥ तं संसारावत्याणं वा जीवाणं सजोगि-केवलीणं वा॥१७॥
-षट्खण्डागम १३/५, ४ सू. १६-१७
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