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३५६ . कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट्. स्वरूप (३)
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मानसिक-वाचिक क्रियाओं को कर्म कहा जाता है। इसी को कार्य, काम व्यापार या प्रवृत्ति भी कहते हैं। इतना ही नहीं, जीवन के किसी भी स्पन्दन, हलचल या क्रिया के लिए 'कर्म' शब्द का व्यवहार किया जाता है फिर वह क्रिया चाहे जड़शक्ति की हो या चैतन्यशक्ति की। शिल्पी, कर्मकर तथा आजीविकापरायण लोगों के आचार्योपदेशज शिल्प या अनाचार्योपदेशज कृषि, गोपालन, वाणिज्यादि कार्यों या लुहार, सुथार, सुनार आदि के कार्यों को अर्थात्-सभी काम-धन्धों और व्यवसायों को भी 'कर्म' कहते हैं। भगवान् ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि के अन्तर्गत विविध कर्म यौगलिकों को सिखाये थे।' कर्मशब्द : क्रियापरक अर्थ में, विभिन्न परम्पराओं में
इसी अपेक्षा से न्याय और वैशेषिक दर्शनों ने चलनात्मक अर्थ मेंआत्मा के संयोग और प्रयत्न के द्वारा हाथ आदि से होने वाली क्रिया को कर्म कहा है। वहाँ कर्म का लक्षण किया गया है-"जो एक द्रव्य होद्रव्यमात्र में आश्रित हो, जिसमें कोई गुण न रहे तथा जो संयोग और विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे, वह कर्म है।" वहाँ कर्म के उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन, ये पाँच भेद बतलाये गए हैं। १. (क) 'क्रियते निवर्त्यते यत् तत्कर्म घट-प्रभृति लक्षणे कार्ये।' –विशेषावश्यकभाष्य (ख) यत् क्रियते तत्कर्म
-षट्खण्डागम भा. ६, पृ. १८ (ग) 'योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनर्थान्तरम्।'
-विशेषावश्यक (घ) भ्रमणादि क्रियायाम् (ङ) कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) पृ.३ में 'कर्म एटले शुं ?. (च) कर्म-मीमांसा पृ. २ (छ) 'जीवनवृत्तौं,
-उपासकदशांग अ.१ (ज) 'जीविकार्थे आरम्भे;-पंचाशक, विवरण १ (झ) 'कम्माणि तणहारगादीणि'
--आचा. चू. १ अ.. (ञ) कम्मं जमणायरिओवदेस सिप्पमन्नहाऽभिहिय। किसि-वाणिज्जाईय, घड-लोहाइ-भेयं वा।
-आ. म. द्वि. अभिधानराजेन्द्रकोष में 'कम्म' शब्द पृ. २४४ (ट) "अनाचार्यकै कर्म, साचार्यकं शिल्पमथवाऽकादाचित्कं शिल्पं कादाचित्क तु
कर्म, शिल्पं तु नित्य व्यापारः।" -भगवती सूत्र श. १२, उ. ५ वृत्ति २. (क) "आत्म-संयोग-प्रयत्नाभ्या हस्ते कर्म।" -वैशेषिक दर्शन ५/१/१/१५० (ख) एक द्रव्यगुणं संयोग-विभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्म-लक्षणम्।
-वही १/११७ (ग) उत्क्षेपणं ततोऽवक्षेपणमाकुञ्चनं तथा।
प्रसारणं च गमन कर्माण्येतानि पंच च॥' -न्याय-सिद्धान्त-मुक्तावली ६
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